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________________ साधना में सहायक तत्व जैन संस्कृति का सार श्रमण धर्म है। श्रमण धर्म की सिद्धि के लिए आचार संहिता श्रेष्ठ मानी गई है। आचार संहिता का पालक साधक के जीवन में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावानुसार विभिन्न अनुकूल-प्रतिकूल परीषह-उपसर्ग आते रहते हैं। ऐसी विषम परिस्थिती के समय 'गुरु' ही उसके लिए सम्बल रूप होते हैं। भूले भटके राही के लिए गुरु मार्गदर्शक हैं। साधना में सुदृढ़ता लाने के लिए गुरु कृपा, दृढ़ श्रद्धा, आत्मविश्वास एवं दृढमनोबल अत्यावश्यक हैं। 'गुरुपद' साधना मार्ग में सर्वोत्कृष्ट सहायक तत्त्व है।४° गुरु को जैनागम में छह पद से घोषित किया गया है।४१ १) आचार्य, २) उपाध्याय, ३) प्रवर्तिनी (साध्वीप्रमुखा), ४) स्थविर, ५) गणी (सूत्रार्थदाता) और ६) गणावच्छेद। इनकी आज्ञानुसार साधना करने वाला साधक सिद्धी को प्राप्त कर सकता है। साधक के दो प्रकार माने गये हैं - विनीत और अविनीत। विनीत शिष्य ही साधना मार्ग से ध्येय सिद्ध कर सकता है, अविनीत नहीं। उसके पन्द्रह स्थान हैं - ४२ गुरुजनों के समीप बैठना, चंचलता का त्याग करना, मायारहित होना, कुतूहलता का त्याग करना, किसी का भी तिरस्कार न करना, दीर्घकाल तक रोष न करना, मित्रों पर उपकार करना, विद्या का मद न करना, आचार्यादि के मर्म को प्रगट न करना, मित्रोंपर क्रोध न करना, अपराधी मित्रों के दोषों को न कहना एवं अमित्र के भी परोक्ष में गुणों का वर्णन करना, कलह एवं हिंसादि का त्याग करना, गुरुकुल में वास करना, लज्जाशील होना तथा जितेन्द्रिय होना। इसके विपरीत अविनीत के लक्षण हैं। उसके भी चौदह स्थान हैं। वह कभी भी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता ४३ | सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय से युक्त गुरु ही धर्मशास्त्रार्थ उपदेशक माना जाता है।४४ इसीलिए भगवती सूत्र के प्रारंभ में प्रथम गुरुपद को रखा है। तदनन्तर सिद्धपद को। गुरु ही साधक को योग्यता देखकर उसे मार्गदर्शन करते हैं। इसलिए साधना पथ में गुरु को मुख्य सहायक तत्त्व माना गया है। जब तक गुरु कृपा प्राप्त नहीं होती; तब तक देह और आत्मा का भेदज्ञान नहीं होता। सतत संसार में परिभ्रमण चालू रहता है।४५ संसार परिभ्रमण घटाने में गुरुकृपा आधारस्तम्भ है। कर्मक्षय के बिना मुक्ति (मोक्ष) नहीं। उसके लिए सम्यक् साधना मोक्षमहल को पाने में सोपान रूप है। आगम में कर्मक्षय के साधन तीन अथवा चार बताएँ हैं। इन्हें ही मार्ग या सोपान कहते हैं। कर्मक्षय करने के साधन कर्म-आवृत जीव अपने परमात्म भाव को प्रगट करना चाहते हैं, उनके लिए किन साधनों की अपेक्षा है? जैन दर्शन में परम पुरुषार्थ - मोक्ष मार्ग को पाने के तीन साधन बतलाये हैं -४६ १) सम्यग्दर्शन, २) सम्यग्ज्ञान, और ३) सम्यक् चारित्रा कहीं-कहीं मोक्ष मार्ग के ११४ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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