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रत्नत्रयादि साधनों के साथ भी ये दो तो क्षीरनीरवत् होते ही हैं। इन दोनों के ऊपर ही आध्यात्मिक साधना की नींव खड़ी है। इसलिए ध्यानयोग का फल संवर और निर्जरा ही बतलाया है। संवर का अर्थ है - आत्मा में नवीन कर्मों के आगमन को रोकना और निर्जरा का अर्थ है - उदयावली में आए हुए पूर्व संचित कर्मों का नाश करना। इसके सविपाक
और अविपाक ऐसे दो भेद हैं। आठ कर्मों में मोहनीय कर्म ही अधिक बलवान है। उस पर विजय प्राप्त करने के लिए संवर और निर्जरा की साधना ही श्रेयस्कर है। इन दोनों का विस्तृत वर्णन आगे करेंगे।
साधना में विघ्न साधनाशील जीवन में साधक को अनेक विघ्नों का सामना करना पड़ता है। जो साधक विघ्नों पर विजय प्राप्त करता है वह तो अपने ध्येय को सिद्ध कर लेता है और जो विघ्नों पर विजय नहीं कर पाता है; वह ध्येय से विचलित हो जाता है और पुनः चतुर्गति में परिभ्रमण करने लगता है। साधना मार्ग में आने वाले विघ्न निम्नलिखित हैं -
साधना मार्ग में सबसे बड़ा शत्रु प्रमाद है। प्रमाद के कारण ही 'मोह' अपना वर्चस्व जमा लेता है। मोहनीय कर्म का आवरण जब तक दूर नहीं होता है; तब तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती है। प्रमाद के कारण ही मोह पर विजय नहीं पायी जाती हैं। मोहविजेता; मनोविजेता एवं कषायविजेता बनने के लिए सबसे पहले प्रमाद का त्याग करना होगा। जो त्यागी बनकर भी निद्रा-तंद्रा, आलस्य एवं प्रमाद में सतत व्यस्त रहता है वह पाप श्रमण है।३६ पाप श्रमण २० असमाधि दोष, २१ शबल दोष, आशातना के ३३ एवं महामोहनीय कर्म उपार्जन के तीस स्थानों से बच नहीं सकता। ज्ञान-दर्शन-चारित्र से आत्मा का भ्रष्ट होना ही असमाधि दोष है। चारित्र की निर्मलता को भ्रष्ट करनेवाले शबल दोष हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि का हास होना ही आशातना है। महामोहनीय कर्म के उपार्जन से संसारवृद्धि होती है। अतः ये सभी साधना मार्ग में विघ्नरूप हैं। ३७ इन सब में 'मोह' सबसे बड़ा शत्रु है। इसके अहंकार और ममकार सैनिक हैं तथा रागादि भाव इसका परिवार है। इसीलिए मोह को राजा की उपमा दी गई है।३८ मोह राजा के वशीभूत होते ही सात कर्मों का परिवार अपने आप वश में हो जाता है। इसलिए साधना मार्ग में आने वाले इन विघ्नों को जीतना आवश्यक ही है। उसके बिना साधना मार्ग प्रशस्त नहीं बन सकता। इनके अतिरिक्त परिग्रह कषाय प्रबलता, इन्द्रियासक्ति एवं स्त्री संसर्ग भी साधना पथ में विघ्न रूप ही है।३९ इन सभी विघ्नों के कारण साधना का शुद्ध स्वरूप निखर नहीं पाता। अतः साधक प्रमाद का त्याग करके मोह पर विजय करते हुए इन सभी विघ्नों को दूर करने में सतत प्रयत्नशील रहता है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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