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________________ आत्मा और कर्म में बलवान कौन? कर्मों के अनादि होने पर भी आत्मा अपने प्रयत्नों से कर्मों को नष्ट कर देती है। अतः कर्म की अपेक्षा आत्मा की शक्ति अनन्त है। बहिर्दृष्टि से कर्म शक्तिशाली प्रतीत होते हैं क्योंकि आत्मा के दो प्रकार के भाव हैं - विकारी और अविकारी। शास्त्रीय भाषा में इसे ही विभावदशा और स्वभावदशा कहा जाता है। विभावदशा के कारण अर्थात् कर्म के वशवर्ती होकर आत्मा नाना योनियों में जन्म-मरण के चक्कर भी काटती रहती है। परंतु अन्तर्दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा की शक्ति असीम है। वह जैसे अपनी परिणती से कर्मों का आस्रव करती है और उनमें उलझी रहती है, वैसे ही कर्मों को क्षय करने की क्षमता रखती है। कर्म चाहे कितने ही शक्तीशाली प्रतीत हों, लेकिन आत्मा उससे भी अधिक शक्ती-सम्पन्न है। जैसे लौकिक दृष्टि से पत्थर कठोर और पानी मुलायम प्रतीत होता है। किन्तु वह पानी भी पत्थरों की बड़ी-बड़ी चट्टानों के टुकड़े-टुकड़े कर देता है। वैसे ही आत्मा की शक्ति अनन्त है। जब तक उसे अपनी विराट चेतना-शक्ति का भान नहीं होता; तब तक कर्मों को अपने से बलवान समझकर उनके अधीन -सी रहती है और ज्ञान होते ही उनसे मुक्त होने का प्रयत्न कर शुद्ध, बुद्ध और सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेती है। यही आध्यात्मिक सिद्धान्त है। इसके लिए साधक को विशेष साधना की आवश्यकता होती है और विशेष साधना के बिना साध्य की सिद्धी हो नहीं सकती। आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य साधना के दो प्रकार हैं, आध्यात्मिक और भौतिक। भौतिक साधना के अनेक पहलू हैं, जिसके साध्य करने से अशाश्वत सुख की प्राप्ति हो सकती है, जिसके कारण भव भ्रमण बढता है अपितु घटता नहीं। आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति आध्यात्मिक साधना के द्वारा ही हो सकती है। अतः साधनाशील जीवन में किसी भी एक ध्येय या लक्ष्य का होना बड़ा महत्त्व रखता है। ध्येय एवं लक्ष्यहीन जीवन का कोई महत्त्व नहीं। आध्यात्मिक धर्म साधना का केन्द्रस्थान आत्मा है। आत्मा को अनावृत करना या उसकी अनन्त ज्योति को प्रकट करना ही साधना का लक्ष्य है। जैन धर्म में साधना का लक्ष्य आत्मा के स्वरूप का बोध कराना है। आत्मा-स्वरूप बोध के होते ही साधक को 'मैं कौन हूँ', 'कहाँ से आया हूँ' और 'कहाँ जानेवाला हूँ' आदि का बोध हो जाता है।३३ इसका बोध होते ही आत्मा अध्यात्म साधना द्वारा सर्वबन्धनों से मुक्त हो जाता है। इसके लिए सही पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है और वह है चार पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ। ज्ञानीजन मोक्षपुरुषार्थ में ही सतत प्रयत्नशील रहते हैं।३४ सभी प्राणी बन्धन मुक्ति चाहते हैं। अतः बद्धकर्म से आत्मा की मुक्ति कैसे हो? उसके लिए जैनागम में दो मुख्य तत्त्व बताये गये हैं - ३५ १) संवर और २) निर्जरा। मोक्ष के लिए ये ही दो मुख्य साधन हैं। ११२ जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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