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________________ कर्म- संतति (प्रवाह) की अपेक्षा जीव और कर्म का संबंध अनादिकालीन है। किन्तु अनादिकालीन होने पर सान्त (अन्तसहित) भी है और अनन्त (अन्तरहित) भी है। जो जीव मोक्ष पा चुके हैं या पायेंगे, उनका कर्म के साथ अनादि-सान्त संबंध है और जिनका कभी मोक्ष न होगा, उनका कर्म के साथ अनादि - अनन्त संबंध है। प्रवाह संतति की अपेक्षा आत्मा के साथ कर्म का अनादि संबंध और व्यक्ति की अपेक्षा सही संबंध है। जीव के साथ कर्म का संबंध अनादिकालीन है। ऐसा नहीं है कि जीव अनादिकाल से सर्वथा शुद्ध चैतन्यरूप था और बाद में किसी समय उस कर्म के साथ संबंध हो गया हो। इसको इस उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है कि जिस प्रकार खान के भीतर स्वर्ण और पाषाण, दूध और घृत, अण्डा और मुर्गी, बीज और वृक्ष का अनादिकालीन संबंध चला आ रहा है, उसी प्रकार जीव और कर्म का भी प्रवाह संतति की अपेक्षा अनादिकालीन संबंध स्वयं सिद्ध जानना चाहिये। अर्थात् संसारी जीवों के मन, वचन, काय में परिस्पन्दन होता है और उससे कर्मों का आस्रव होने से गतिजाति आदि होती है। गति होने पर देह और देह में इन्द्रियाँ बनती हैं। उनसे विषयों का ग्रहण होता है और विषयों के ग्रहण से राग, द्वेष, उत्पन्न होता है। फिर इन राग-द्वेष रूप भावों से संसार का चक्र चलता रहता है। परिणाम जीव के बंध का कारण है। क्योंकि जीव का कर्म के कारण (निमित्त से) ही परिभ्रमण है । ३१ अनादि होने पर भी कर्मों का अन्त संभव है। कर्म और आत्मा का अनादि संबंध है और जो अनादि होता है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता, ऐसा सामान्य नियम है। लेकिन कर्म के बारे में यह नियम सार्वकालिक नहीं है। स्वर्ण और मिट्टी का दूध और घी का अनादि संबंध है, तथापि वे प्रयत्न - विशेष से पृथक् पृथक् होते देखे जाते हैं। वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि संबंध का भी भाव - विशेष अथवा अध्यवसाय - विशेष से अन्त होता है। यह स्मरणीय है कि व्यक्ति रूप से कोई भी कर्म अनादि नहीं है, किसी एक कर्म विशेष का आत्मा के साथ अनादि संबंध नहीं है। पूर्वबद्ध कर्मस्थिति पूर्ण होने पर वह आत्मा से पृथक् हो जाता है और नवीन कर्म का बंध होता रहता है। इस प्रकार से, प्रवाह रूप के कर्म के अनादि होने पर भी व्यक्तिशः अनादि नहीं है और तप, संयम, ध्यान के अनुष्ठानद्वारा कर्मों का प्रवाह नष्ट होने से आत्मा मुक्त हो जाती है। इस प्रकार कर्मों की अनादि परम्परा प्रयत्न - विशेषों से नष्ट हो जाती है और पुनः नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है। - आत्मा के प्रदेशों से कर्मपुद्गल कैसे चिपकते हैं? जिस प्रकार किसी के शरीर पर तेल की मालिश की जाए, तो उसके शरीर पर धूलि के कण आकर चिपक जाते हैं, वैसे ही राग और द्वेष से भीगी हुई आत्मा से कर्म बन्ध होता है । ३२ जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only १११ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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