________________
जीव के भेद
जीवों के दो प्रकार हैं - २६ संसारी और मुक्त। इन दोनों प्रकार के जीवों में चैतन्यरूप भावप्राण तो रहते ही हैं लेकिन संसारी जीव ज्ञान-दर्शन आदि भाव प्राणों के साथ यथायोग्य इन्द्रिय आदि द्रव्य प्राणों सहित है तथा मुक्त जीवों में सिर्फ ज्ञान-दर्शन आदि गुणात्मक भावप्राण होते हैं। इन्द्रिय आदि कर्मजन्य द्रव्यप्राण है और जब तक जीव कर्मबद्ध है तब तक वे यथायोग्य इन्द्रियों आदि से युक्त रहते हैं। लेकिन कर्ममुक्त हो जाने पर सिर्फ ज्ञान-दर्शन आदि रूप चैतन्य परिणाम रहते हैं।
जीव की उक्त व्याख्या व्यवहार और निश्चय नय की दृष्टि से की गई है। अर्थात् संसारी जीव की इन्द्रिय आदि द्रव्यप्राणों और ज्ञानादि भावप्राणों सहित जीवित रहने की व्याख्या व्यवहारनय सापेक्ष है तथा मुक्त जीवों के सिर्फ ज्ञान आदि भावप्राणों द्वारा जीवित रहने की व्याख्या निश्चयनय सापेक्ष है।२७
मुक्त और संसारी ये दोनों जीव हैं। लेकिन जीवस्थान में संसारी जीवों को ग्रहण किया गया है। इसका कारण यही है कि मुक्त जीवों में किसी प्रकार का भेद नहीं है। सभी चैतन्य गुण एक जैसा है। लेकिन संसारी जीवों में चैतन्य गुण के साथ-साथ शरीर आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार की विभिन्नता पायी जाती है। जिनका बोध आगे कराया जायेगा। संसारी जीवों के विभिन्न भेद भी आगे बताये जायेंगे।
जीव और कर्म का संबंध कर्मशास्त्रों में जीव और कर्म का संबंध चार प्रकार से माना गया है - २८ (१) अनादि-अनन्त, (२) अनादि-सान्त, (३)सादि-अनन्त और (४) सादि-सान्त। पंच संग्रह में तीन ही प्रकार के बंध बताये हैं-२९ अनादि-अनंत, अनादि-सान्त और सादि-सान्त। अभव्यों में अनादि-अनन्त, भव्यों में अनादि सान्त और उपशान्त मोह गुणस्थान से च्युत हुए जीवों में सादि-सान्त बंध होता है। सादि-अनंत बंध जो बंध या उदय आदि सहित होगा वह कभी भी अनन्त नहीं हो सकता। इसलिए इसे ग्राह्य नहीं माना गया
जीव और कर्म का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। जैसे कनकोपल (स्वर्ण-पाषाण) में सोने और पाषाण रूप मल का मिलाप अनादिकालिक है, वैसे ही जीव और कर्म का संबंध अनादिकालिक है। संसारी जीव का वैभाविक स्वभाव रागादि रूप से परिणत होने का है और बद्धकर्म का स्वभाव जीव को रागादिरूप से परिमाणित करना है। इस प्रकार जीव और कर्म का यह स्वभाव अनादिकाल से चला आ रहा है। अतएव जीव और कर्म का संबंध अनादिकाल से समझना चाहिए।३०
११०
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.