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आत्मा में अनेक गुण होते हुए भी उपयोग को ही मुख्य लक्षण क्यों माना गया है? निःसंदेह आत्मा में अनंतगुण-पर्याय हैं। किंतु उन सब में उपयोग ही मुख्य है। क्योंकि वह स्व पर प्रकाशक है। जो स्व पर प्रकाशक होता है वह अपना और पराया का ज्ञान कराता है। इसी प्रकार उपयोग भी अपना तथा इतर पर्यायों का ज्ञान करा सकता है। इसलिए उपयोग सब पर्यायों में प्रधान है। उपयोग जीव का लक्षण है फिर पाँचों भावों को भी जीव का लक्षण क्यों कहा? दोनों में से किसी एक को ही लक्षण बनाते दूसरा लक्षण देने की क्या आवश्यकता है? असाधारण धर्म सब एक से नहीं हो सकते। वे लक्ष्य कभी होते हैं। कभी नहीं भी होते हैं। समग्र लक्ष्य में तीनों काल में पाया जाने वाला एकमात्र उपयोग ही है । औपशमिक आदि जीव के स्वरूप हैं तो सही पर वे न तो सब आत्माओं में पाये जाते हैं और न त्रिकालवर्ती ही हैं। त्रिकालवर्ती और सर्व आत्माओं में पाया जानेवाला एक जीवत्व रूप पारिणामिक भाव ही है जिसका फलित अर्थ उपयोग ही है। इसलिए जीव का लक्षण उपयोग है और औदयिक आदि भाव जीव के उपलक्षण हैं। जड़ और चेतन का विवेकपूर्वक निश्चय उपयोग द्वारा ही हो सकता है। उपयोग तरतम भाव से सभी जीवों में पाया जाता है। जिसमें उपयोग नहीं वह जड़ है। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव अन्य द्रव्यों में नहीं होते इसलिए ये आत्मा के लक्षण जानने चाहिए। ये तीनों भाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिए पारिणामिक हैं। जीवत्व का अर्थ चैतन्य है। जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य कहलाता है। अभव्य इसका उलटा है। ये तीनों ही जीव के परिणामिक भाव हैं।२३ यही पारिणामिक भाव (उपयोग) जीव का लक्षण है।
जीव शद्ध का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ
जो जीता है, जीता था और जीवेगा, इस प्रकार के त्रैकालिक जीवन गुण वाले को जीव कहते हैं। जीव के जीवित रहने के आधार हैं- द्रव्यप्राण और भावप्राण। स्पर्शन, रसन आदि पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन और काय यह तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयुद्रव्यप्राण के यह दस भेद हैं तथा ज्ञान-दर्शन- चैतन्य आदि भावप्राण कहलाते हैं। इसलिए जीव का लक्षण इस प्रकार किया जाता है कि जो द्रव्य और भाव प्राणों से जिवित है, जीवित था और जीवित रहेगा वह जीव है। अर्थात् जो प्राणों को धारण करता है, जिसके आयु का सद्भाव है, आयु का अभाव नहीं है, वह जीव है । २४ जो विविध पर्यायों को प्राप्त करती है, वह आत्मा है। २५ कर्मावरणों से आच्छादित जीव कहलाता है और कर्मों से मुक्त जीव को ही शुद्धात्मा कहते हैं। अतः जैनदर्शन में जीव और आत्मा एक ही पर्यायवाची शब्द हैं।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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