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पारिणामिक भाव ही कर्मोपाधिरहित स्वाभाविक भाव है। कर्मोंपाधि के भेद से तथा स्वरूप के भेद से ही पाँचों भाव नाना प्रकार के हैं। औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव
तीनों ही कर्मजनित हैं। ये तीनों कर्म के उदय, उपशम और क्षयोपशम से होते हैं। यद्यपि क्षायिक भाव शुद्ध है, अविनाशी है, तथापि कर्म क्षय होने से होते हैं इसलिये इसको भी कर्मजनित ही कहा है। सिर्फ पारिणामिक भाव ही कर्मजनित नहीं है। शुद्ध पारिणामिक भाव जीव के स्वभाव हैं। इसके भव्यत्व, अभव्यत्व ऐसे दो भाव हैं। ये भी कर्मजनित नहीं हैं। फिर भी कर्म की अपेक्षा से भव्य अभव्य स्वभाव वाले जाने जाते हैं। भव्य अभव्य स्वभाव भव स्थिति पर आधारित है, कर्मजनित नहीं है। अतः जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीनों ही पारिणामिक भाव स्वभावजनित हैं। इसके अतिरिक्त अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणवत्त्व, प्रदेशत्व, असंख्यातप्रदेशत्व, असर्वगतत्व, अरूपत्व आदि अनेक पारिणामिक भाव हैं। २२ किंतु यहाँ पर जीव का लक्षण (स्वरूप) बतलाना है और वह उसके असाधारण भावों के द्वारा ही बताया जा सकता है। इसलिए औपशमिक आदि के साथ पारिणामिक भाव भी वे ही बतलाए हैं; जो सिर्फ जीव के असाधारण हैं। अस्तित्व आदि पारिणामिक हैं सही, पर वे जीव की तरह अजीव में भी हैं। इसलिए वे जीव के असाधारण भाव नहीं हैं।
यह उपयोग की विविधता बाह्य अभ्यन्तर कारण कलाप की विविधता पर अवलम्बित है। विषय भेद, इन्द्रियादि साधन भेद तथा देश कालादि भेद ही विविध बाह्य सामग्री है, एवं आवरण की तीव्रता - मन्दता का तारतम्य आन्तरिक सामग्री की विविधता है। जब तक मोह कर्म की दर्शन और चारित्र ये दोनों शक्तियाँ प्रबल रहती हैं तब तक कर्मों का आवरण सघन होता है। उस स्थिति में आत्मा का यथार्थ रूप प्रगट नहीं होता है, किन्तु आवरणों के क्षीण निर्जीर्ण या क्षय होने पर आत्मा का यथार्थ स्वरूप अभिव्यक्त होता है। जब कर्मावरण की तीव्रता या अत्यन्त सघनता हो तब आत्मा के अविकास की अंतिम स्थिति रहती है और जैसे-जैसे आवरण क्रमशः क्षीण होते हुए पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है तब आत्मा अपने पूर्ण शुद्ध रूप में स्थित हो जाती है। इन दोनों स्थितियों के अन्तराल में आत्मा अनेक प्रकार की नीची, ऊँची, सघन विरल अवस्थाओं का अनुभव करती है। ये मध्यवर्तिनी अवस्थाएँ अपेक्षा दृष्टि से ऊँच और नीच कहलाती हैं। अर्थात् उपर वाली स्थिति की अपेक्षा नीची और नीची अवस्था की अपेक्षा की दृष्टि से ऊंची कहलाती हैं। इन ऊँच और नीच अवस्थाओं के बनने और कहलाने का मुख्य कारण कर्मों की औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक स्थितियाँ हैं। इन बाह्य और आन्तरिक सामग्री वैचित्य की बदौलत एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रकार की बोध क्रिया करता है। यह बोध की विविधता अनुभव गम्य है।
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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