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________________ चारित्र और तप भी सभी जीवों में सदा सर्वदा विद्यमान नहीं रहता। चारित्र का अर्थ है - आत्मा में प्रविष्ट कर्म समूह को निकालने वाला (आत्म भवन में निवसित कर्मसमूह को खाली करनेवाला)। अतः स्पष्ट है कि चारित्र तब तक ही है जब तक कमों का प्रवाह प्रवहमान है। कर्म का सर्वथा नाश होने पर चारित्र की आवश्यकता नहीं होती। चारित्र की आवश्यकता साधक अवस्था तक ी है न कि सिद्ध अवस्था में। इसीलिए सुख-दुःख और चारित्र व्यवहार दृष्टि से जीव का लक्षण है। तप चारित्र का ही अंग है। वह भी जीव में सदा काल पाया नहीं जाता। ज्ञान, दर्शन और वीर्य आत्मा में सदासर्वदा पाये जाते हैं। इसीलिए वीर्य और उपयोग को आत्मा का निश्चयनय से लक्षण कहा गया है। उपयोग दो प्रकार का है१८ साकारोपयोग और निराकारोपयोग। साकारोपयोग के आठ भेद हैं। (पांच ज्ञान और तीन अज्ञान) तथा निराकारोपयोग के चार भेद हैं। (चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन)। जो बोध ग्राह्य वस्तू को विशेष रूप से जाननेवाला हो वह साकारोपयोग है और जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्य रूप से जाननेवाला हो वह अनाकारोपयोग है। अनाकारोपयोग को दर्शन या निर्विकल्प बोध भी कहते हैं। यहाँ वस्तु में विद्यमान सामान्य धर्म के ग्रहण को दर्शन कहा गया है। गौतम गणधर ने श्रमण भगवान से पूछा कि प्रभो! आत्मभाव से जीवभाव में जो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम दिखाई देता है वह किस कारण से है? तब उन्होंने कहा कि जीव के पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन रूप उपयोग लक्षण होने से उत्थान आदि जीव में कहे गये हैं।१९ और भी औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पांच भाव भी जीव के ही लक्षण कहे गये है।२० संसारी अथवा मुक्त कोई भी आत्मा हो उसके सभी पर्याय इन पांचो भावों में से किसी न किसी भाववाले अवश्य होते हैं। अजीव में ये पांचो भाव वाले संभव नहीं। इसीलिए ये अजीव के स्वरूप हो नहीं सकते। ये पांचों भाव सभी जीवों में एक ही साथ पाये जाय यह भी कोई नियम नहीं है। समस्त मुक्त जीवों में दो ही भाव-क्षायिक और पारिणामिक होते हैं जबकि संसारी आत्मा में तीन,चार या पांच भाव होते हैं। किन्तु दो कभी भी होते नहीं। इसीलिए व्यवहारिक और निश्चयनय से इन पांचो भावों को जीव का लक्षण कहा है। शुभाशुभ कर्म के उदय से होने वाले जीव के भाव को औदयिक भाव कहते हैं। जो भाव सर्व प्रकार के कर्म-क्षय से उत्पन्न होते हैं, वे क्षायिक भाव हैं। कमों के उदय-अनुदय अर्थात क्षयोपशम से प्रकट होने वाला भाव क्षायोपशमिक भाव है। मोहनीय कर्म के उपशम से होने वाला भाव औपशमिक भाव है। जिसके कारण मूल वस्तु में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो किन्तु स्वभाव में ही परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। ये पांचों भाव जीव के होते हैं।२१ इनमें से चार भाव कर्मोपाधि के निमित्त से होते हैं। एक जैन साधना पद्धति में ध्यान योग १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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