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गये हैं, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। अविरत (व्रतरहित) सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्रचरणों के भक्त होते हैं, अपनी निन्दा करते रहते हैं तथा गुणग्राही होते हैं वे जघन्य बहिरात्मा कहलाते हैं। श्रावक के व्रतों को (बारह व्रत, ग्यारह पडिमा) पालन करनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं। ये जिन वचन में अनुरक्त होते हैं और महापराक्रमी होते हैं। तथा पंच महाव्रतों से युक्त, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में सदा स्थित तथा जिन्होंने समस्त प्रमाद को जीत लिया है वे अन्तरात्मा है। शुद्धात्मा को ही परमात्मा कहा गया है।१४ किन्तु यह स्मरण रहे कि जब आवरण बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं, तब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की पूर्णता में स्थिर हो जाती है। जो उसका पूर्ण स्वभाव है। उच्चतम सर्वोच्च अप्रतिपाती स्थिति है।
जैन दर्शन में आत्मा, जीव और चेतन ये तीनों ही एकार्थवाची शब्द हैं। इसीलिए कहीं-कहीं जीव, आत्मा अथवा चेतना शद का प्रयोग मिलता है। निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा या जीव का शुद्ध स्वरूप ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यादि गुण वाला है। शुद्ध जीव न दीर्घ है, नन्हस्व है, न वर्ण है, न गन्ध है, न रस है, न स्पर्श है, न रूप है, न शरीर है, न संस्थान है, न संहनन है, न राग है, न द्वेष है, न मोह है, न प्रत्यय है, न कर्म है, न वर्गणा है, न स्पर्धक है, न कोई अध्यवसाय स्थान है, न कोई अनुराग स्थान है, न कोई योग स्थान है, न बंध स्थान है, न उदय स्थान है, न मार्गणा स्थान है, न स्थिति बंधस्थान है, न संक्लेशस्थान है, न संयमलब्धि है, न जीवसमास है और न गुणस्थान है। ये तो सब पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं।१५ ये दीर्घादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहार नय से जीव में देखे जाते हैं, निश्चयनय से जीव के कोई भाव नहीं होते। अतः जीव की व्याख्या विधिनिषेध से ही की जाती है। वह शद रूपादि से परे है।
जीव का लक्षण जैन दर्शन में जीव का लक्षण उपयोग है। १६ इसे आत्मा और चेतन भी कहते हैं। वह अनादि सिद्ध स्वतंत्र द्रव्य है। चेतना और उपयोग में क्या अन्तर है? चेतना गुण रूप है
और उपयोग उस चेतना को जानने रूप पर्याय है अर्थात् बोधरूप व्यापार ही उपयोग है। जानने की शक्ति • चेतना समान होने पर भी जानने की क्रिया - बोध व्यापार (उपयोग) समस्त आत्माओं में समान नहीं हो सकता। वह ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वोर्णरूप होता है।१७ सुख-दुःख का संवेदन एवं चारित्र और तप का आचरण व्यवहार दृष्टि से जीव का लक्षण बताया गया है। सुख-दुःख का संवेदन वेदनीय कर्म जन्य साता असाता या शुभ-अशुभ संवेदन का प्रतीक होने से समस्त जीवों में सदाकाल पाया जाता है। यह संवेदना कर्म जन्य है। कर्म से आबद्ध संसारी जीवों में ही इसका अनुभव होता है और वह अनुभूति भी संसारावस्था तक ही रहती है। इसी तरह १०६
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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