SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९३ = १०३ नामकर्म की प्रकृतियों में से बंधन की दस कम करने से ९३ कर्म की प्रकृतियाँ होती हैं। इस प्रकार अष्ट कर्मों की १५८ प्रकृतियाँ हैं । ११ इन आठ कर्मों के१२ भी घाति और अघातिरूप में दो भेद हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय यह चार 'घाति' कर्म हैं। शेष अर्थात वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कर्म 'अघाति' हैं। - आत्मा का स्वरूप आत्मा का यथार्थ स्वरूप शुद्ध चेतना और पूर्ण आनंदमय है, लेकिन जब तक उस पर तीव्र कर्मावरण छाया हुआ हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता है। जैसे-जैसे आवरण शिथिल या नष्ट होते हैं वैसे-वैसे असली स्वरूप प्रगट होता जाता है। जब आवरणों की तीव्रतम स्थिति होती है तब आत्मा अविकसित दशा के निम्नत्तम स्तर पर होती है। आत्मतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले पुरुष के आत्मा में निश्चय ठहरना नहीं होता और अन्तरंग में शरीर आत्मा को भिन्न-भिन्न करने या समझने में मोह को प्राप्त कर भूल जाता है कि इस देह में द्रव्य इन्द्रिय, भावइन्द्रिय, द्रव्यमन, भावमन, दर्शन, ज्ञान, सुख-दुःख, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, अज्ञान आदि, जो भाव हैं, इनमें से आत्मा कौनसा है ? अतः भ्रम का निवारण पहले होना चाहिए और आत्मा का निश्चय करना चाहिये । देह और आत्मा के भेदविज्ञान के बिना आत्मा का शुद्ध स्वरूप स्पष्ट नहीं हो सकता। इसलिए प्रथमतः आत्मा का ही निश्चय करना चाहिए । १३ वह आत्मा समस्त देहधारियों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में परिणत होती है। अर्थात् तीन अवस्था रूप हैं। परमात्मा के दो भेद हैं - अरिहंत और सिद्ध । बाह्य द्रव्य शरीर, धन, परिवार, स्त्री- पुत्रादि को आत्मबुद्धि । (ममता की बुद्धि) से ग्रहण करने वाला तथा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय के कारण जिसकी चेतना मोहनिद्रा से अस्त हो गई है वह बहिरात्मा कहलाता है। तीव्र कषायोदय के कारण वह देह और आत्मा को एक मानता है, अतः वह बहिरात्मा है। जो जीव जिनवचन में कुशल है, जीव और देह भेद को जानते हैं तथा जिन्होंने आठ मदों को जीत लिया है; वे अन्तरात्मा हैं अर्थात् पुद्गल - स्वरूप सुख - दुःख के संयोग-वियोग में हर्ष-शोक करने वाला सिर्फ विभ्रमरूप अंधकार को दूर करके सूर्य-समान आत्मा का ही चिन्तन करने वाला अन्तरात्मा कहलाता है। जो जीव सत्ता से चिदानन्दमय (केवलज्ञानस्वरूप आनन्दमय) समग्र बाह्य उपाधि से रहित स्फटिक - सदृश निर्मल, इन्द्रियादि से अगोचर और अनन्त गुणों से युक्त सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, जिन, विष्णु, ब्रह्मा, शिव आदि आत्माओं को ज्ञानियों ने परमात्मा कहा है। यह आत्मा की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है। इन तीन भेदों में से अन्तरात्मा के तीन प्रकार किये जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only १०५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy