________________
विहायोगति २ - १) शुभ विहायोगति, २) अशुभ विहायोगति। ये १४ पिण्ड प्रकृतियों के अवान्तर भेद हैं। अब प्रत्येक प्रकृतियों के भेद कहते हैं
आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ - १) पराघात, २) उच्छवास, ३) आतप, ४) उद्योत, ५) अगुरुलघु, ६) तीर्थकर, ७) निर्माण, ८) उपघात।
जिन प्रकृतियों के अवान्तर भेद होते हैं - उन्हें पिण्ड प्रकृति और जिनके अवान्तर भेद नहीं होते हैं उन्हें प्रत्येक प्रकृति कहते हैं।
त्रस दशक प्रकृतियां १० - १) त्रस, २) बादर, ३) पर्याप्त, ४) प्रत्येक, ५) स्थिर, ६) शुभ, ७) सुभग, ८) सुस्वर, ९) आदेय, १०) यशः कीर्ति ।
स्थावरदशक प्रकृतियाँ १० - १) स्थावर, २) सूक्ष्म, ३) अपर्याप्त, ४) साधारण, ५) अस्थिर, ६) अशुभ, ७) दुर्भग, ८) दुःस्वर, ९) अनादेय, १०) अयशः कीर्ति। ४+५+५+३+१५+५+६+६+५ +२+५+८+४+२७५ ८+१०+१० = १०३
७) गोत्र कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ २ १)उच्च गोत्र, २) नीच गोत्र ८) अन्तराय कर्म की स्तर प्रकृतियाँ ५
१) दानान्तराय, २) लाभान्तराय, ३) भोगान्तराय, ४) उपभोगान्तराय, ५) वीर्यान्तराय।
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की गणना में नाम कर्म छोड़कर जिनकी जितनी संख्या बतलाई गई है उतने ही उन-उन के उत्तर भेदों के नाम निर्दिष्ट हैं। लेकिन नाम कर्म के ४२, ६७, ९३ और १०३ उत्तर भेदों की संख्या ग्रंथों में बताई गई है। इनमें अधिक मध्यम और अल्प दृष्टिकोण से यह संख्या भिन्न है। उनकी गणना में क्रम इस प्रकार समझना चाहिए।
४२ = १४ पिण्ड प्रकृतियां, ८ प्रत्येक प्रकृतियां , १० त्रसदशक और १० स्थावर दशक ६७ = १० सदशक, १० स्थावर दशक, ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ = २८ १४ पिण्ड प्रकृतियों में से बंधन और संघातन नामकर्म के भेदों को शरीर नामकर्म के अन्तर्गत ग्रहण किया है। शेष रही १२ पिण्ड प्रकृतियों के ४ +५+५ + ३ + ६ + ६ + १+१+१+१+२=३९ + २७६७
१०४
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org