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जैन दर्शन में जिस अर्थ के लिए कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है, उस अर्थ के लिए अथवा उस अर्थ से मिलते-जुलते अर्थ के लिए जैनेतर दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शव मिलते
कर्म-बन्ध के प्रकार जैन दर्शन में कर्म बन्ध की प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है। उसकी मान्यतानुसार संसार में दो प्रकार के द्रव्य पाये जाते हैं - १) चेतन और २) अचेतन। अचेतन द्रव्य भी पांच प्रकार के हैं - धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल। इनमें से प्रथम चार के द्रव्य अमूर्तिक एवं अरूपी हैं। अतः वे इन्द्रियों के अगोचर हैं और इसी से अग्राह्य हैं। केवल एक पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जो मूर्तिक और रूपी है और इसीलिए वह इन्द्रियों द्वारा दिखाई देता है और पकड़ा तथा छोड़ा भी जाता है। 'पूरणाद् गलनाद् पुद्गलः' इस निरुक्ति के अनुसार मिलना और बिछुड़ना इसका स्वभाव ही है। इस पुद्गल द्रव्य की ग्राह्य-अग्राह्य रूप वर्गणाएं होती हैं। इनमें से एक कर्म वर्गणा भी है। लोक में कोई भी स्थान नहीं है, जहां ये कर्मयोग्य पुद्गल वर्गणाएं -पुद्गल परमाणू विद्यमान न हों। जब प्राणी अपने मन, वचन तथा काया से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से कर्म-योग्य पुद्गल-परमाणुओं का आकर्षण होता है और जितने क्षेत्र अर्थात प्रदेश में उसकी आत्मा विद्यमान होती है, उतने ही प्रदेश में विद्यमान वे पुद्गल-परमाणु उसके द्वारा उस समय ग्रहण किए जाते हैं। प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है। प्रवृत्ति की मात्रा में अधिकता होने पर परमाणुओं की संख्या में भी अधिकता होती है और प्रवृत्ति की मात्रा में न्यूनता होने पर परमाणुओं की संख्या में न्यूनता होती है और इन गृहीत पुद्गल परमाणुओं के समूह का कर्म-रूप से आत्मा के साथ बद्ध होना द्रव्य कर्म कहलाता है।
इन द्रव्यकर्मों का क्रमशः प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध इन चारों भेदों में वर्गीकरण कर लिया जाता है। इनमें से रसबंध को अनुभाग बन्ध अथवा अनुभावबन्ध भी कहते हैं।
उक्त चार प्रकार के कर्मबन्धों में से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का बंध योग से एवं स्थितिबंध और अनुभागबंध का बंध कषाय से होता है। " कर्म के भेद
यद्यपि सामान्य की अपेक्षा कर्म का एक प्रकार है, किन्तु विशेष की अपेक्षा द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार हैं। उनमें से ज्ञानावरण आदि रूप पौद्गलिक परमाणुओं के
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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