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पिण्ड को द्रव्य-कर्म और उनकी शक्ति से उत्पन्न हुए अज्ञानादि तथा रागादि भावों को भावकर्म कहते हैं।' पुनः द्रव्यकर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ और उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अट्ठावन अथवा एक सौ अड़तालीस हैं । ९
कर्म की मूल प्रकृतियाँ
१) ज्ञानावरण, २) दर्शनावरण, ३) वेदनीय, ४) मोहनीय, ५) आयु, ६) नाम, ७) गोत्र, और ८) अंतराय । १०
अष्ट कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ १५८
१) ज्ञानावरणकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ - ५
१) मतिज्ञानावरण, २) श्रुतज्ञानावरण, ३) अवधिज्ञानावरण, ४) मनः पर्याय ज्ञानावरण, ५) केवल ज्ञानावरण।
२) दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियाँ - ९
१) चक्षुदर्शनावरण, २) अचक्षुदर्शनावरण, ३) अवधिदर्शनावरण, ४) केवलदर्शनावरण, ५) निद्रा, ६) निद्रा - निद्रा, ७) प्रचला, ८) प्रचलाप्रचला, ९ ) स्त्यानर्द्धि ।
३) वेदनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ - २ १) साता वेदनीय, २) असाता वेदनीय
४) मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ - २८
मुख्य भेद - २ (१) दर्शन मोहनीय, (२) चारित्र मोहनीय दर्शन मोहनीय के प्रभेद - ३
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१) सम्यक्त्व मोहनीय, २) मिश्र मोहनीय तथा ३) मिथ्यात्व मोहनीय | चारित्र मोहनीय के प्रभेद - २५ ( कषाय १६, नो कषाय - ९ ) कषाय :- अनन्तानुबंधी चतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क :- क्रोध, मान, माया, लोभ प्रत्याख्यानावरण चतुष्क -क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन चतुष्क - क्रोध, मान, माया, लोभ ।
४ + ४ + ४ + ४ = १६
नो कषाय १) हास्य, २) रति, ) अरति, ४) शोक, ५) भय, ६) जुगुप्सा, ७) पुरुषवेद ८) स्त्रीवेद और ९) नपुंसक वेद ।
(५) आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ - ४
१) देवायु, २) मनुष्यायु, ३) तिर्यंच आयु, ४) नरकायु ।
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जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
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