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________________ कर्म की परिभाषा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के माध्यम से जीव द्वारा जो कुछ किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं, अर्थात आत्मा की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं। कर्म पौद्गलिक है। जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श हो, उसे पुद्गल कहते हैं। पृथ्वी, पानी, हवा आदि पुद्गल से बने हैं, जो पुद्गल कर्म बनते हैं। अर्थात् कर्म-रूप में परिणत होते हैं, वे एक प्रकार की अत्यंन्त सूक्ष्म रज (लि) हैं, जिसको इन्द्रियां अथवा सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्र भी नहीं जान सकते हैं। किन्तु सर्वज्ञ केवलज्ञानी अथवा परम अवधिज्ञानी उसको अपने ज्ञान से जान सकते हैं। कर्म बनने योग्य पुद्गल जब जीव द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, तब उन्हें कर्म कहते हैं। कर्म की विविध अवस्थाएँ जैन कर्म शास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है। इनका संबंध कर्म के बंध, उदय, उदीरणा, परिवर्तन, सत्ता, क्षय आदि से हैं, जिनको मोटे तौर पर निम्नलिखित ग्यारह भेदों में वर्गीकृत कर सकते हैं -५ १) बन्धन, २) सत्ता, ३) उदय, ४) उदीरणा, ५) उद्वर्तना (उत्कर्षण), ६) अपवर्तना (अपकर्षणा), ७) संक्रमण, ८) उपशमन , ९) निधत्ति, १०) निकाचन और ११) अबाधा (अबाधा काल)। अन्य - अन्य दार्शनिक परम्पराओं में उदय के लिए प्रारब्ध, सत्ता के लिए संचित, बंधन के लिए आगामी या क्रियमाण, निकाचन के लिए नियत विपाकी, संक्रमण के लिए आवागमन, उपशमन के लिए तनु आदि शद्रों का प्रयोग उपलब्ध होता है। कर्म शब्द के वाचक विभिन्न शब्द कर्म शब्द लोक-व्यवहार और शास्त्र दोनों में व्यवहृत हुआ है। जन साधारण अपने लौकिक व्यवहार में काम (कार्य), व्यापार, क्रिया आदि के अर्थ में कर्म शद का प्रयोग करते हैं। शास्त्रों में विभिन्न अर्थों में कर्म शद का प्रयोग किया गया है। खाना, पीना, चलना, आदि किसी भी हल-चल के लिए, चाहे वह जीव की हो या अजीव की हो- कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। कर्मकांडी मीमांसक यज्ञयागादिक क्रियाओं के अर्थ में स्मार्त, विद्वान् ब्राह्मण आदि चार वर्णों और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों के नियत कर्तव्य (कर्म) के रूप में, पौराणिक व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में, वैयाकरण कर्ता के व्यापार के फल अर्थ में, वैशेषिक उत्क्षेपण आदि पांच सांकेतिक कर्मों के अर्थ में तथा गीता में क्रिया, कर्तव्य, पुनर्भव कारणरूप अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं। १०० जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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