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अध्याय ३
जैन साधना का स्वरूप और उसमें ध्यान का महत्त्व
भारतीय परंपरा में जैन दर्शन को साधना प्रधान माना गया है। जैन दर्शन अथवा जैन साधना के स्वरूप को समझने की कुन्जी है - 'कर्म सिद्धांत'। यह निश्चित है कि समग्र दर्शन एवं तत्त्वज्ञान का आधार है आत्मा। आत्मा सर्व-तंत्र स्वतंत्र शक्ति है। अपने सुख-दुःख का निर्माता भी वही है और उसका फल भोगनेवाला भी वही है। आत्मा स्वयं में अमूर्त है, - परम विशुद्ध है। किन्तु वह शरीर के साथ मूर्तिमान बनकर अशुद्ध दशा में संसार में परिभ्रमण कर रहा है और स्वयं ही उससे मुक्त होता है। आत्मा को संसार में भटकाने वाला कौन है? जीवों की भिन्नता और संसार की विचित्रता किसके कारण है? आत्मा की विविध दशाओं एवं स्वरूपों का विवेचन एवं उसके परिवर्तनों का रहस्य उद्घाटित करता है 'कर्म सिद्धांत'। क्योंकि राग और द्वेष दोनों ही कर्म के बीज है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म-मरण का मूल है और जन्म मरण को ही दुःख कहते हैं।२ अतः भगवान महावीर का कथन अक्षरशः सत्य एवं तथ्य है कि कर्म के कारण ही यह विश्व विविध विचित्र घटनाचक्रों में प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है। ईश्वरवादी दर्शनों ने इस विश्ववैचित्र्य एवं सुख-दुःख का कारण ईश्वर को माना हैं; जब कि जैन दर्शन ने समस्त सुख-दुःख एवं विश्ववैचित्र्य का कारण मूलतः जीव एवं उसके मुख्य सहायक कर्म को माना है। जैन दर्शन में सचेतन पदार्थों के लिए जीव, आत्मा या चेतन और अचेतन पदार्थों के लिए अजीव कहा है। वास्तव में कर्म स्वतंत्र रूप से कोई शक्ति नहीं है, वह स्वयं में पुद्गल है - जड़ है। किन्तु राग-द्वेष वशवर्ती आत्मा के द्वारा कर्म किए जाने पर वे इतने बलवान और शक्तिसंपन्न बन जाते हैं कि कर्ता को भी अपने बंधन में बांध लेते हैं। मालिक को भी नौकर की तरह नचाते हैं। यह कर्म की बड़ी विचित्र शक्ति है। हमारे जीवन और जगत के समस्त परिवर्तनों का यह मुख्य बीज कर्म क्या है, इसका स्वरूप क्या है? इसके विविध परिणाम कैसे होते हैं? यह बड़ा ही गंभीर विषय है। जैन दर्शन में कर्म का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसलिए जैन दर्शन अथवा जैन साधना के स्वरूप को समझने के लिए 'कर्म सिद्धांत' को समझना अनिवार्य है।
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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