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________________ योगशास्त्र से यह कुछ भिन्नता रखता है। इनका कथन है कि गृहस्थ को योग का अधिकार नहीं है। संयमी साधु ही इसका अधिकारी है। इसलिए इसमें पाँच महाव्रत और उनकी २५ भावनाओं का विस्तृत वर्णन है। सर्ग २१ और २७ में आत्मा को ही ज्ञान-दर्शन चारित्र रूप माना है। कषायरहित आत्मा को ही मोक्ष है। इसका उपाय इन्द्रियविजेता बनना है। इस विजय प्राप्ति के लिए क्रमशः चित्तशुद्धि, रागद्वेषविजेता, समत्व की प्राप्ति है। समत्व की प्राप्ति ही ध्यान की योग्यता है। इसमें प्राणायाम का वर्णन करीबन १०० श्लोकों में हैं। हेमचंद्र की तरह ये भी प्राणायाम को ध्यान साधना में निरुपयोगी और अनर्थकारी मानते हैं। अनुप्रेक्षाओं का वर्णन करीबन २०० श्लोकों में किया है। ध्यान का वर्णन भी आगम की दृष्टि से ही किया गया है, परंतु धर्मध्यान के अन्तर्गत ध्येयरूप में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में ध्यान का विस्तृत वर्णन हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ पर तीन टीकाएँ हैं- (१) तत्त्वत्रयप्रकाशिनी (२) नयविलास की टीका और (३) टीका - इसके कर्ता अज्ञात हैं। योग शास्त्र (अध्यात्मोपनिषद्) यह कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य की कृति है । प्रकाशनों में प्रकाशित है। इनकी पदसंख्या ५६+११५+१५६+१३६+२७३+८+२८+८१+१६+२४+६१+५५ = १०१९ क्रमशः बारह श्लोक है। प्रथम प्रकाश में चार पुरुषार्थ में से मोक्ष का कारण ज्ञान- दर्शन चारित्ररूप 'योग' माना है। योगशास्त्र का मुख्य विषय यही है। प्रकाश १ से ४ (चार) तक गृहस्थ धर्म का विस्तृत वर्णन है। प्रकाश ५ से १२ तक प्राणायाम, आसन, ध्यान पर विस्तृत वर्णन है। आठवें से ग्यारह प्रकाश तक क्रमशः पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का वर्णन है। रूपातीत ध्यान के अन्तर्गत ही शुक्लध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। तथा योग के माहात्म्य को, अभयकुमार, आदिनाथ, ऋषभदेव, आनंद, कुचिकर्म, कौशिक, कामदेव, कालसौरिकपुत्र, चुलिनीपिता, तिलक, दृढ़प्रहारी चोर, परशुराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, भरत चक्रवर्ती, मरूदेवी माता, मण्डिक, महावीर स्वामी, रावण, रौहिण्येय, वसू (नृपति), सगर चक्रवर्ती, संगमक, सनत्कुमार चक्रवर्ती, सुदर्शन श्रेष्ठी, सुभूम चक्रवर्ती और स्थूलभद्र आदि के दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया है। ये सब योग के बल से सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ पर स्वोपज्ञवृत्ति है। इसके अतिरिक्त इस पर 'योगिरमा ' 'वृत्ति' 'टीका टिप्पण' 'अवचूरि', 'बालावबोध' 'वार्तिक' आदि अनेक टीकाएँ हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ८७ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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