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निरालम्बन) में विभाजित किया है। इनमें स्थान शद से अभिप्राय कायोत्सर्ग और पद्यासन आदि से है। २० गाथा में योग का विस्तृत वर्णन है।
इस पर यशोविजय उपाध्याय की विस्तृत टीका है, जो आत्मानंद जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा से प्रकाशित है।
'षोडशक प्रकरण' में ग्रन्थ के नामानुसार ही १६-१६ पद्यों के १६ प्रकरण हैं। प्रस्तुत कृति में बाल, मध्यम बुद्धि एवं बुध आदि के वर्गीकरण द्वारा विविध विषयों का प्रतिपादन किया है। योग साधना में बाधक खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान, प्रान्ति, अन्यमुद्, रुग्र, और आसंग इन आठ चित्त दोषों का १४ वे प्रकरण में वर्णन मिलता है। वैसे ही सोलहवें प्रकरण में इन दोषों के प्रतिपक्षी अदेश, जिज्ञासा, शुश्रुषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति का वर्णन है। पन्द्रहवें प्रकरण में जिनेन्द्रध्यान का वर्णन है। ध्यान दो ही प्रकार का है। सालंबन और निरालंबन। इन्ही दोनों ध्यानों का फल केवल ज्ञान की प्राप्ति होने से सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। इस प्रकार इसमें ध्यान का अर्थात् योग का विस्तृत वर्णन है।
इस पर यशोविजयसूरि विरचित न्यायाचार्यवृत्तिगतटिप्पन है। यह सूरत से प्रकाशित है।
'ब्रह्मसिद्धिसमुच्चय' प्रस्तुत कृति हरिभद्र की है ऐसा मुनि पुण्यविजयजी का मन्तव्य है। इसमें करीबन ४२३ पद्य हैं। महावीर को नमस्कार करके ब्रह्मादि की प्रक्रिया, सिद्धान्तानुसार आत्म तत्त्व का निरूपण, सम्यक्त्व का लक्षण, अद्वेषादि आठ अंगों का विस्तार, इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग का विस्तृत वर्णन करके उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी का उल्लेख किया है। ये श्रेणियां ध्यान साधक ही चढ़ सकता है। ब्रह्मादि की प्राप्ति योग द्वारा ही हो सकती है ऐसा हरिभद्र का कथन है।
धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थ धर्म और यति धर्म का विस्तृत वर्णन है। इसके आठ अध्याय हैं। सातवें अध्याय में धर्मफल के अन्तर्गत ध्यान का विशेष वर्णन किया है।
'शास्त्रवार्ता समुच्चय' में आठ स्तव (प्रकरण) हैं। उनकी पद संख्या क्रमशः ११२+८१+४४+१३७+३९+६३+६६+१५९ = ७०१ है। उनमें सभी दर्शनों का प्रतिपादन करके ज्ञानयोग का स्वरूप और फल बताकर ध्यानात्मक तप को ही परमयोग (मुक्ती का मार्ग) कहा है। इस पर यशोविजय उपाध्याय (वि, १७-१८ वीं शती) की टीका है।
'पंच सूत्र' प्रस्तुत ग्रन्थ पर हरिभद्र की वृत्ति है। यह पाप-प्रतिघात-गुणबीजाधान, साधु धर्म की परिभावना, प्रव्रज्या ग्रहणविधि, प्रव्रज्या परिपालन और प्रव्रज्या - फल इन
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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