________________
'योगशतक' यह कृति प्राकृत में है। इसमें १०१ गाथाएँ हैं। इसमें भी विभिन्न विषयों का वर्णन है। प्रारंभ में ही योग के दो भेद किये हैं - निश्चय और व्यवहार। इन दोनों का स्वरूप, निश्चल योग से फल सिद्धि, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध, योग के अधिकारी- अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि और चारित्री इन तीनों का स्वरूप, मैत्री आदि चार भावनाएँ, आहार विषयक स्पष्टीकरण में भिक्षा, योग जन्य लब्धियाँ, कायिक प्रवृत्ति की अपेक्षा मानसिक भावना की श्रेष्ठता में मण्डुकचूर्ण और उसकी भस्म का दृष्टान्त तथा मिट्टी का घड़ा और सुवर्ण कलश का भी उदाहरण देकर समझाया है। काल ज्ञान का उपाय भी वर्णित है। ये सभी विषय ध्यान से संबंधित हैं। इनमें से ध्यान को अलग नहीं निकाल सकते। यहाँ ध्यान शब्द के लिये 'योग' शब्द का प्रयोग किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ व्याख्या है। जिसका परिमाण ७५० श्लोक हैं।
'योग दृष्टिसमुच्चय' यह २२६ पद्यों में रचित हैं। इसमें योग का विभिन्न दृष्टियों से वर्गीकरण किया गया है।
प्रथम वर्गीकरण ओघदृष्टि और योग दृष्टि से किया गया है। द्वितीय इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग इन तीन भेदों से हैं। इनमें सामर्थ्ययोग के धर्म संन्यास और योगसंन्यास ऐसे दो भेद किये हैं। इसके अनन्तर मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन आठ दृष्टियों को पतंजलि के अष्टांगयोग के साथ तुलना की है। इन आठ दृष्टियों को स्पष्ट करने के लिए तृणादि के उदाहरण दिये हैं। इसमें १४ गुणस्थानों का भी वर्णन है। अन्त में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी तथा निष्पन्न योगी के रूप में वर्गीकरण किया है।
संसारी जीव की अचरमावर्तमानकालीन अवस्था को 'ओघदृष्टि' और चरमवर्तमानकालीन अवस्था को 'योगदृष्टि' कहा है। आठ दृष्टियों में से प्रथम की चार दृष्टियों में मिथ्यात्व का अंश होने से उसे अवेद्यसंवेद्यपद वाली और अस्थिर एवं सदोष कहा है और शेष चार को वेद्यसंवेद्यपदवाली कहा है। प्रथम चार दृष्टियों में प्रथम के चार गुणस्थान, पाचवीं छठी दृष्टि में पांच से सात तक गुणस्थानत, सातवीं दृष्टि में आठ और नौवां गुणस्थान तथा अन्तिम दृष्टि में शेष सभी गुणस्थान हैं।
इस पर भी हरिभद्र की स्वोपज्ञ वृत्ति है, जिसका श्लोक प्रमाण ११७५ है।
'योगविंशिका' ग्रन्थ में योग के ८० भेद बताए हैं। इसमें गाथा २० ही हैं किन्तु पूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है। प्रारंभ में ही योग शब्द की व्याख्या की गई है। समस्त धर्म व्यापार, जो मोक्ष से जोड़ता है, उसे योग कहा है। इसमें स्थान, ऊर्ण, अर्थ, सालम्बन और निरालम्बन इन पाँच को कर्मयोग (स्थान व ऊर्ण) और ज्ञानयोग (अर्थ, सालम्बन,
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org