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________________ १९ वीं सन्धि से उत्तरार्ध प्रारंभ होता है। २० वीं सन्धि लोक का विस्तृत वर्णन है। २१वीं सन्धि में चारणमुनियों के कथन से लब्धि का कथन किया है और २८वीं सन्धि में भरत के आत्मचिन्तन का वर्णन है। इन सभी में ध्यान का स्वरूप स्पष्ट हो रहा है। लोक के स्वरूप में लोक संस्थान धर्मध्यान का स्वरूप निखर आता है। महापुराण :- प्रस्तुत ग्रन्थ जिनसेनाचार्य द्वारा रचित है। इसमें २४ पर्व हैं। इसमें मराठी अनुवाद है। विशेषतः २१ वें पर्व में आगम शैली से ही ध्यान का विस्तृत वर्णन है। शुक्लध्यान के चारों भेदों का विस्तार से वर्णन है। शेष वर्णन पूर्ववत् ही है। हारिभद्रीय कृतियाँ :- आचार्य हरिभद्र का कालमान विक्रम संवत् ७५७ से ८२७ माना जाता है। उन्होंने आगमकालीन ध्यानयोग पद्धती को ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को रखकर तत्कालीन परिस्थिति का निरीक्षण परीक्षण करके समस्त ध्यानयोग की प्रक्रिया को 'योग' शब्द के अन्तर्गत रख दिया। उन्होंने १४४४ ग्रन्थ लिखे परन्तु उनमें से ध्यान संबंधी निम्नलिखित ही ग्रन्थ हैं - १) योगबिन्दु, २) योगशतक, ३) योगदृष्टि समुच्चय, ४) योगविंशिका, ५) षोडषक प्रकरण, ६) ब्रह्मसिद्धी समुच्चय, ७) धर्म बिन्दु, ८)शास्त्रवार्ता समुच्चय और ९) पंचसूत्र की वृत्ति। 'योगबिन्दु' ५२७ पद्यों में रचित यह अध्यात्मप्रधान कृति है। इसमें विविध विषयों के वर्णन के साथ, योग का माहात्म्य, योग की पूर्वभूमिका 'पूर्व सेवा' शब्द के रूप में पाँच अनुष्ठान (विष, गय, अनुष्ठान, तद्धेतु और अमृत) के वर्णन के साथ ही साथ सम्यक्त्व की प्राप्ति में साधनभूत यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का वर्णन किया है। जैन योग का विस्तृत वर्णन अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति संक्षेप इन पाँच आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं में किया है। पतंजलि के द्वारा कथित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि का स्वरूप हरिभद्रसूरि ने प्रथम के चार आध्यात्मिक योग को सम्प्रज्ञात और अंतिम वृत्तिसंक्षेप असम्प्रज्ञात समाधि के समान माना है। ___ योग के अधिकारी और अनाधिकारी के वर्णन में मोहान्धकार में विद्यमान संसारी जीवों के लिये अचरमावर्त शब्द का प्रयोग किया है। उन्हें ही 'भवाभिनन्दी' की भी संज्ञा दी है। ये जीव ध्यान के अधिकारी नहीं है। चरमावर्त में विद्यमान शुक्लपाक्षिक, भिन्न ग्रन्थि और चरित्री जीवों को ही ध्यान का अधिकारी माना है। इस अधिकार की प्राप्ति 'पूर्व सेवा' से ही हो सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर 'सद्योगचिन्तामणि' नामक स्वोपज्ञवृत्ति है। इसका श्लोकप्रमाण ३६२० है। ८२ ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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