________________
प्रवचन के सार भूत सारे पदार्थों का बोध कराया है। विभिन्न विषयों के उपर २७६ द्वार हैं, जिसमें ध्यानयोग संबंधी विषयों का वर्णन निम्नलिखित द्वार के अन्दर हैं -
जिनकल्पी, स्थविरकल्पी एवं साध्वी के उपकरणों का वर्णन (द्वार, ६०-६२) विनय के ५२ भेद (६५ द्वार में), जंघावरण और विद्याचरण लब्धीधारी के गमन की शक्ति का प्रमाण (६८ द्वार में),परिहारविशुद्धि का स्वरूप, यथालन्दिक साधना का स्वरूप (६९ और ७० द्वार में), क्षपक श्रेणी और उपशम श्रेणी का विस्तृत वर्णन (८९,९० द्वार में), प्रायश्चित्त, ओघ सामाचारी, पदविभाग सामाचारी (क्रमशः ९८, ९९, १०० द्वार में) संलेखना, सम्यक्त्व के सड़सठ और दस भेद, चौदह गुणस्थान, २८ लब्धियां तथा विविध तप का वर्णन (क्रमशः १३४, १४८-९, २२४, २७०, २७१ द्वार में) इन सभी द्वारों में ध्यान विषयक वर्णन है। उसे उस विषय से अलग नहीं कर सकते। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान विषयक विभिन्न सामग्री उपलब्ध होती है। तप द्वार में तो ध्यान का आगमिक शैली द्वारा वर्णन है।
प्रस्तुत ग्रन्थ सिद्धसेन सूरिकृत 'तत्त्वप्रकाशिनी वृत्ति' दो भागों में विभाजित है। यह ग्रन्थ देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संख्या के अनुक्रम से सन् १९२२ और १९२६ में प्रकाशित किया गया है। प्रथम भाग में १०३ द्वार और ७७१ गाथाएँ हैं और दुसरे में १०४ से २७६ द्वार तक है तथा ७७२ से १५९९ तक गाथाएं हैं। इस टीका का श्लोक प्रमाण १६५०० हैं।
समाधितन्त्र अथवा समाधिशतक :- प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य पूज्यपाद (वि. ६ शती) द्वारा विरचित है। इसमें १०५ श्लोक हैं। सिद्धात्मा और सकलात्मा (अरिहंत) को नमस्कार करने के बाद इसमें आगम, युक्ति और स्वानुभव के अनुसार शुद्ध आत्मस्वरूप का कथन किया है। बहिरात्मदशा को छोड़कर अन्तरात्म (उपाय) स्वरूप द्वारा परमात्मावस्था को प्राप्त करना ही ध्यान है। वास्तविक में ध्यान का यही केन्द्रबिन्दु है। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में आत्मा की तीन अवस्था बताई हैं। सबसे श्रेष्ठ अवस्था परमात्मस्वरूप है और यही ध्यान है।
इस पर आचार्य प्रभाचन्द्र (वि, १३ वीं शती) द्वारा संक्षिप्त संस्कृत टीका लिखी गयी है।
इष्टोपदेश :- इसके रचयिता भी पूज्यपाद ही हैं। यह भी आध्यात्मिक ही कृति है। इसमें ५१ श्लोक हैं। योग्य उपादान की प्राप्ती से पत्थर सोना बन सकता है, वैसे ही योग्य द्रव्य क्षेत्रादि उत्तम सामग्री के प्राप्त होने से जीव आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। कुंदकुंदाचार्य के उपादान और निमित्तकारण इन दोनों का अनुकरण ही पूज्यपाद ने किया
७८
ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org