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________________ षट्खण्डागम के प्रथम पाँच खण्ड पर धवला टीका वीरसेनाचार्य के द्वारा लिखी गई है और अन्तिम महाबंध पर जय धवला टीका लिखी गई है। आचार्य कुंदकुदविरचित ग्रन्थ :- ये दिगम्बर परम्परा के प्रसिद्ध आचार्य हैं। इनके सभी ग्रन्थ प्राकृत में हैं । इनका काल अनुमानतः विक्रम की प्रथम शताद्वी माना जाता है। उनके ध्यान संबंधी निम्नलिखित ग्रन्थ माने जाते हैं प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, समयसार, अष्टपाहुड और द्वादशानुप्रेक्षा । 'प्रवचनसार' में तीन श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र का मोक्ष मार्ग के साधन रूप में उल्लेख किया है। ध्यान की यही मुख्य प्रक्रिया है। ध्यान में चारित्र की प्रधानता है। शुद्ध चारित्र का पालक ही ध्यान करने योग्य है। जीव के अशुभ, शुभ और शुद्ध ये तीन परिणाम हैं। शुभाशुभ परिणामों की परिणति से स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति होती है और शुद्धोपयोग के परिणामों से निर्वाण की। शुद्धोपयोग का ही ध्यान करना है। यह साध्य है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में द्रव्य, गुण, पर्याय का विश्लेषणात्मक वर्णन के साथ ही साथ पंचास्तिकाय और काल का स्वरूप स्पष्ट किया है। शुद्धात्मा का स्वरूप भी स्पष्ट किया है। ध्यान का लक्ष्य शुद्धात्मस्वरूप ही है। तृतीय श्रुतस्कन्ध में श्रमणाचार का वर्णन है । सम्पूर्ण ग्रन्थ ध्यान से ही संबंधित है। इसका ग्रन्थमान क्रमशः ९२+१०८+७५ = २७५ है। इस पर आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन की पृथक् पृथक् टीका है। 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम स्कन्ध में षट् द्रव्य (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल) का विस्तृत वर्णन है। इससे धर्मध्यान के लोक संस्थान भेद का स्वरूप स्पष्ट होता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में जीवादि नौ तत्त्व और सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का स्वरूप स्पष्ट किया है। स्वसमय और परसमय के वर्णन से संसारी और मुक्त आत्मा का स्वरूप बताया है। इसमें ध्यान का स्वरूप निश्चय और व्यवहारी के रूप में स्पष्ट किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर अमृतचन्द्रसूरि की 'तत्त्वदीपिका' और जयसेनाचार्य की 'तात्पर्यवृत्ति' नामक दो टीकाएँ प्रकाशित हैं। इसकी गाथा संख्या १०४+६९=१७३ है। 'नियमसार' ग्रन्थ में ज्ञान दर्शन चारित्र का स्वरूप स्पष्ट किया है। आत्मशोधन में उपयोगी साधन प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि, रत्नत्रय (सम्यग्दर्शनादि ), पंच समिति, तीन गुप्ति और आवश्यक आदि को माना है। ये ही सब ध्यान में सहाय्यक अंग (तत्त्व) हैं। इसके अतिरिक्त बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का भी निश्चय और व्यवहार नय से स्पष्टीकरण किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित संस्कृत टीका है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ७५ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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