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अन्तर्गत ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। विशेषतः आयोज्य करण, केवली समुद्घात
और योगनिरोध प्रक्रिया में ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। इस प्रकार प्रस्तुत टीका में ध्यान संबंधी बहुत सामग्री है। आगमेतर - साहित्य
षट् खण्डागम :- यह आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा विरचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल विक्रम की प्रथम शतादी है। यह छह खण्डों में विभक्त है। इसलिए यह 'षट् खण्डागम' नाम से प्रसिद्ध है। वे छह खण्ड निम्नलिखित हैं - १) जीवस्थान २) क्षुद्रक बंध, ३) बन्ध स्वामित्वविचय, ४) वेदना, ५) वर्गणा और ६) महाबन्ध।
१) जीवस्थान :- यह षट्खण्डागम का प्रथम खंड है। कर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय के आश्रय से जीव की जो परिणति होती है उसका नाम गुणस्थान है। मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थान हैं, और चौदह ही मार्गणा हैं। (गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार)। जिन अवस्थाविशेषों के द्वारा जीवों का मार्गण (अन्वेषण) किया जाता है उन अवस्थाओं को मार्गणा कहा जाता है। गुणस्थान के द्वारा ही ध्यानावस्था का विकास होता है।
२) क्षुद्रक बंध :- इसमें बंधक जीवों की ही चर्चा की गई है।
३) बन्ध स्वामित्वविचय :-मिथ्यात्व, असंयम और कषाय आदि के द्वारा जो जीव और कर्म पुद्गलों का एकता (अभेद) रूप परिणमन होता है, वह बन्ध कहलाता है। कर्म बन्ध का स्वामी कौन हो सकता है? इस पर गुणस्थान और मार्गणा द्वारा विवेचन किया गया है।
४) वेदना खण्ड :- इस खण्ड का कृति और वेदना नामक दो अनुयोगद्वारों के द्वारा निरूपण किया गया है। प्रारंभ में मंगलाचरण रूप से ४४ सूत्रों द्वारा ध्यान का फल स्पष्ट किया है।
५) वर्गणा खण्ड :- प्रस्तुत खण्ड में नाम स्थापनादि तेरह प्रकार से स्पर्श की प्ररूपणा एवं स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता आदि १६ प्रकार के अनुयोग द्वार एवं नाम, स्थापना, द्रव्य, प्रयोग, समवदान, अधकर्म, ईर्यापथ कर्म, तपः कर्म, क्रिया कर्म और भाव कर्म इन दस कमों का विवेचन है। इनमें से तप कर्म के अन्तर्गत शुभ ध्यान का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसका वर्णन आगम शैली से है।
६) महाबंध :- यह षट् खण्डागम का अन्तिम खण्ड है। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार बंध के भेदों की विस्तृत चर्चा है।
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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