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________________ बिना साधक ध्यान नहीं कर सकता । ज्ञानी आत्मा ही ध्यान कर सकता है। 'जीवाभिगम विवरण' में मूलसूत्र के प्रत्येक पद की व्याख्या के साथ ही साथ अशुभ (अप्रशस्त) ध्यान का वर्णन करते हुए नरक वासों का विस्तार से वर्णन किया है। उसमें शीतोष्णवेदना के विवेचन में शरदादि ऋतुओं का भी वर्णन किया है। ऋतुएँ छह हैं- प्रावृट्, वर्षारात्र, शरद्, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म । इन सभी ऋतुओं में ध्यान किया जा सकता है। 'व्यवहारविवरण' मूल सूत्र, निर्युक्ति और भाष्य पर आधारित है। इसमें कल्प, व्यवहार, दोष और प्रायश्चित्त आदि विषयों पर विवेचन किया गया है। ये सभी ध्यान से संबंधित विषय हैं। प्राचश्चित्त के विशेष रूप से चार प्रकार बताये हैं- प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुंचना। इन्हीं चार का विस्तृत वर्णन है । प्रतिसेवना प्रायश्चित्त दो प्रकार का है - मूल प्रतिसेवना और उत्तर प्रतिसेवना । मूल प्रतिसेवना पाँच प्रकार की है और उत्तर प्रतिसेवना दस प्रकार की है। इन में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं - दर्पिका और कल्पका । प्रतिसेवना प्रायश्चित्त से ही ध्यान का विशेष संबंध है। 'राजप्रश्रीय विवरण' में राजा परदेशी और केशीकुमार श्रमण के प्रश्नोत्तर से जीव और अजीव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और ज्ञानी आत्मा ही ध्यान का अधिकारी है - यह स्पष्ट किया है। मलधारि हेमचंन्द्रकृत टीकाएँ :- जैन साहित्य के ये प्रसिद्ध टीकाकार हैं। उन्होंने निम्नलिखित ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी हैं - १) आवश्यक टिप्पण, २) शतक विवरण, ३) अनुयोगवृत्ति, ४) उपदेशमालासूत्र, ५) उपदेशमालावृत्ति, ६) जीवसमासविवरण, ७ ) भव भावना सूत्र, ८) भव भावना विवरण, ९) नन्दी टिप्पण, १०) विशेषावश्यक भाष्य - बृहद्वृत्ति। ये सभी ग्रन्थ विषयों की दृष्टि से प्रायः स्वतंत्र ही हैं। इनमें ध्यान संबंधी निम्नलिखित ग्रन्थ हैं - 'आवश्यकवृत्तिप्रदेश व्याख्या' यह हरिभद्र कृत वृत्ति है। इसे हारिभद्रीयावश्यक वृत्तिटिप्पणक भी कहते हैं। इसी वृत्ति के कठिन स्थलों का हेमचन्द्र ने सरल भाषा में व्याख्यान करके आवश्यक क्रिया को ध्यानयोग में अनिवार्य बताया है। इस ग्रन्थ का परिमाण ४६०० श्लोक प्रमाण है। 'अनुयोग द्वारवृत्ति' में ध्यान को ज्ञानादि का आवश्यक अंग माना है। विशेषतः इस वृत्ति में ध्यान का वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वर्णित है। इसका ग्रन्थमान ५९०० श्लोक प्रमाण है। इनकी ध्यान संबंधी तीसरी वृत्ति 'विशेषावश्यक भाष्य-बृहद्वृत्ति' है। इसे 'शिष्यहितवृत्ति' भी कहते हैं। मलधारि चन्द्रसूरि की यह बृहत्तम कृति है। इसमें विशेषावश्यक भाष्य में कथित (प्रतिपादित) प्रत्येक विषय को सरल भाषा में समझाया गया है। दार्शनिक विषयों को भी शंका समाधान द्वारा प्रोत्तरपद्धती से सरल करके समझाया है । यत्र-तत्र संस्कृत कथानक द्वारा स्थविर कल्प और जिनकल्प साधना का स्वरूप स्पष्ट किया है। इन्हीं के अन्तर्गत तथा चारित्र के जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ७३ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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