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'उपासकदशांगवृत्ति' में सूत्रगत विशेष शदों के अर्थ का स्पष्टीकरण किया है। वैसे ही 'उपासक दशा' शब्द का भी शद्वार्थ स्पष्ट किया है। श्रावक की ग्यारह पडिमा के अन्तर्गत कायोत्सर्ग पडिमा में ध्यान का स्वरूप संक्षिप्त रूप से वर्णित किया है।
'अन्तकृत्दशावृत्ति' एवं 'अनुत्तरौपातिकदशा वृत्ति'- ये दोनों वृत्तियाँ सूत्रस्पर्शिक और शद्वार्थ ग्राही हैं। दोनों में 'तप' को ही ध्यान कहा है । तपाराधना से ध्यान अलग नहीं है। तप का अंग ध्यान है यह इन दोनों वृत्तियों से स्पष्ट किया है।
'प्रश्नव्याकरण वृत्ति' में आस्रवपंचक और संवर पंचक का वर्णन करके इनके अन्तर्गत ही क्रमशः अशुभ और शुभ ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है और शुभ ध्यान को प्रधानता दी है।
'विपाक वृत्ति' में विपाक शब्द का अर्थ पुण्यपाप रूप कर्म फल के रूप में बताया है। है। ध्यान योगी को पुण्य पाप का स्वरूप जानना आवश्यक है। दोनों ही त्याज्य हैं किन्तु पुण्य अन्त तक साथ रहता है।
'औपपातिक वृत्ति' में शद्वार्थ प्रधान है। इनमें तप वर्णन के अन्तर्गत ध्यान का स्वरूप विस्तृत रूप से वर्णित किया है। तपोधनी लब्धी धारी होता है किन्तु सच्चे साधक उसका उपयोग नहीं करते। अंत में उन्हें भी छोडना ही होता है। सिर्फ ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप लब्धियाँ ही ग्राह्य है, शेष नहीं ।
मलयगिरिविहित वृत्तियाँ :
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आचार्य मलयगिरि आगम ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं। उन्होंने बहुत सी टीकाएँ लिखी हैं जिनमें से निम्नलिखित उपलब्ध हैं - १ ) भगवतीसूत्र - द्वितीय शतक वृत्ति, २) राजप्रश्नीयोपांग टीका, ३) जीवाभिगमोपांग टीका, ४) प्रज्ञापनोपांग टीका, ५) चन्द्रप्रज्ञप्त्युपांग टीका, ६) सूर्यप्रज्ञप्त्युपांग टीका, ७) नन्दीसूत्र टीका, ८) व्यवहारसूत्रवृत्ति, ९) बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति (अपूर्ण), १०) आवश्यक वृत्ति (अपूर्ण), ११) पिण्डनिर्युक्ति टीका, १२) ज्योतिष्करण्डक टीका, १३) धर्म संग्रहणी वृत्ति, १४) कर्मप्रकृति वृत्ति, १५) पंच संग्रह वृत्ति, १६ ) षडषशीति वृत्ति, १७) सप्ततिका वृत्ति, १८) बृहत्संग्रहणी वृत्ति, १९) बृहत्क्षेत्र समास वृत्ति और २०) मलयगिरि शद्वानुशासन। इनमें कुछ ही टीकाओं में ध्यान विषयक जानकारी मिलती है। उन्हें जहाँ, जहाँ विशेष आवश्यक लगा वहाँ वहाँ विषय का स्पष्टीकरण करते गये।
उन टीकाओ में से " नन्दीसूत्र वृत्ति" में यत्र-तत्र संस्कृत कथानक के द्वारा ज्ञानदर्शनादि का विश्लेषण करके ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। 'प्रज्ञापना वृत्ति' में जीवाजीवादि पदार्थों का स्पष्टीकरण करके यह सिद्ध किया कि जीवादि पदार्थों के ज्ञान
ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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