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________________ विचार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से किया गया है।५३ प्रसंगानुसार स्थान-स्थान पर ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। प्रत्यक्षतः ध्यान का वर्णन न होकर अप्रत्यक्ष रूप से ध्यान का स्वरूप वर्णित किया है। ओघनियुक्ति-वृत्ति :- प्रस्तुत टीका द्रोणसूरि (वि. ११-१२ शता.) की है। यह वृत्ति ओघनियुक्ति और उसके लघुभाष्य पर है। मूल पदों के शब्दार्थ के साथ ही साथ तद् तद् विषय का भी 'शंका-समाधान' पूर्वक संक्षिप्त विवरण दिया है। सामायिक अध्ययन में उसके चार अनुयोगद्वार (उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय) बताये हैं। इनमें अनुगम के दो भेद किये गये हैं - नियुक्त्यनुगम और सूत्रानुगम। निर्युक्त्यनुगम तीन प्रकार का है - निक्षेप, उपोद्घात और सूत्रस्पर्श। इनमें से उपोद्घात - निर्युक्त्यनुगम के उद्देश, निर्देश आदि २६ भेद हैं। उनमें से काल के नाम, स्थापना, द्रव्य, अद्धा, यथायुष्क, उपक्रम, देश, काल, प्रमाण, वर्ण, भाव आदि भेद हैं। इनमें से उपक्रम काल के दो प्रकार हैं - सामाचारी और यथायुष्क। सामाचारी उपक्रम काल तीन प्रकार का है - ओघ, दशधा और पदविभाग। इनमें ओघ सामाचारी वही है जो ओघ नियुक्ति है। ध्यान कब करना? कैसे करना? आदि गढ़ विषयों के वर्णन के साथ ही साथ ध्यान साधक जिनकल्पी और स्थविर कल्पी का भी वर्णन किया है। अभयदेव विहित वृत्तियाँ :- (वि. १२-१३ शताद्वी) 'स्थानांग वृत्ति' मूल सूत्रों पर है। यह वृत्ति शदार्थ तक ही सीमित नहीं, अपितु इसमें प्रत्येक विषय का विवेचन और विश्लेषण किया गया है। चतुर्थ स्थान में ध्यान के भेद, लक्षण, आलम्बन, अनुप्रेक्षा आदि का विशेष वर्णन है। इसके अतिरिक्त आत्मा, संयम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि ध्यान संबंधी विषयों पर विवेचन किया गया है। 'समवायांगवृत्ति' समवाय के मूल सूत्रों पर ही लिखी गई है। समवाय शब्द का विश्लेषणात्मक वर्णन करके जीवाजीवादि विविध विषयों पर वर्णन किया गया है। ध्यान की योग्यता किसमें हैं। (कौन ध्यान कर सकता है।) इसका विस्तृत वर्णन समवायांग वृत्ति में है। जीव ही ध्यान की योग्यता पा सकता है अजीव नहीं। ___'व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति' में ३६ हजार प्रनों का सम्यक् प्रकार से वर्णन है। विषय भिन्न-भिन्न हैं। तप वर्णन के अन्तर्गत ही ध्यान का स्वरूप विस्तृत रूप से वर्णित किया है और ज्ञान प्रधान क्रिया ही मोक्ष प्रदाता है यह भी स्पष्ट किया है। प्रस्तुत वृत्ति का श्लोकप्रमाण १८६१६ हैं। 'ज्ञाताधर्मकथाविवरण' (वृत्ति) में शद्वार्थ की प्रधानता है। चारों प्रकार के ध्यानों का स्वरूप कथानक के माध्यम से स्पष्ट किया है। इस ग्रन्थ का श्लोक प्रमाण ३८०० है। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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