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________________ विशेषावश्यक भाष्य- स्वोपज्ञवृत्ति : प्रस्तुत स्वोपज्ञवृत्ति प्रारंभ में जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण की है और अन्तिम भाग कोट्याचार्यगणि ने पूर्ण किया । षष्ठ गणधर वक्तव्य तक ही उनकी टीका है बाद में वे दिवंगत हो गये। प्रस्तुत कृति में जैनागमों के प्रसिद्ध सभी विषयों का विस्तृत वर्णन है। स्थविरकल्प, जिन कल्प, यथालन्द, पाँच चारित्र, उपशम श्रेणी, क्षपक श्रेणी आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा है। स्वतंत्र रूप में इसमें ध्यान का वर्णन नहीं है। इसके लिए स्वतंत्र अलग ही 'ध्यान - शतक' लिखा गया है जिस पर आगे विचार करेंगे। यहाँ तो अप्रत्यक्ष रूप से उपरोक्त विषयों में ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। हरिभद्रकृत वृत्तियाँ :- हरिभद्र सूरि प्राचीन टीकाकार माने जाते हैं। इनकी आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार एवं पिण्डनिर्युक्ति पर टीका है। पिण्डनिर्युक्ति की अपूर्ण टीका को वीराचार्य ने पूर्ण की है। आवश्यकवृत्ति नियुक्ति पर लिखी गई है। कहीं-कहीं भाष्य गाथा भी मिलती हैं। हरिभद्रसूरि ने इसमें स्वतंत्र रूप से नियुक्ति गाथाओं का विवेचन किया। पंच ज्ञान के विवरण में अभिनिबोधि - ज्ञान की छह दृष्टियों से व्याख्या की। वैसे ही अन्य श्रुत, अवधि, मनः पर्यव एवं केवलज्ञान का भेद-प्रभेद से व्याख्यान किया है। इसमें छह आवश्यक का वर्णन है। चतुर्थ आवश्यक 'प्रतिक्रमण' में ध्यान का विस्तृत वर्णन है और पंचम 'कायोत्सर्ग' आवश्यक में ध्यान का संक्षिप्त विवेचन है। अन्तिम 'प्रत्याख्यान' आवश्यक में श्रावक धर्म पर विस्तार से विवेचन है। इस प्रकार इस वृत्ति में ध्यान विषयक अधिक सामग्री है। दशवैकालिक पर शिष्यबोधिनी वृत्ति है। इसे बृहद् वृत्ति भी कहते हैं। इसमें ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार पर वर्णन है। उनमें से तपाचार के अन्तर्गत आभ्यन्तर तप में ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। प्रज्ञापना पर प्रदेश व्याख्या के अन्तर्गत 'मंगल' का विशेष विवेचन के साथ भव्य अभव्य जीव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। विशेषतः जीव अजीव तत्त्व पर विस्तृत वर्णन है। ज्ञान-दर्शन के वर्णन में ओघ संज्ञा और लोकसंज्ञा शब्द का प्रयोग किया गया है। ओघ संज्ञा को दर्शनोपयोग और लोकसंज्ञा को ज्ञानोपयोग कहा है। संज्ञा का अर्थ - आभोग (मनोविज्ञान) है। इसके अतिरिक्त योनियों, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या, उपयोग, संयम, समुद्घात का भी विशेष वर्णन है। ये सब ध्यान से विशेष संबंध रखते हैं। जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ६९ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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