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और अगस्त्यसिंह की है। यह उनसे भिन्न है। इसमें आदि, मध्य और अन्त्य मंगल की उपयोगिता सिद्ध की है और दसकालिक, दशवैतालिक अथवा दशवैकालिक की व्युत्पत्ति भी दी है। इसमें मंगल शद्ब से ध्यान का संबंध जोड़ा है। ४९ जो कि पदस्थ ध्यान से संबंधित है।
निशीथ - विशेष चूर्णि :- जिनदासगणिकृत प्रस्तुत चूर्णि मूलसूत्र, निर्युक्ति, भाष्य गाथाओं के विवेचन रूप में है। प्रारंभ में पीठिका के अन्तर्गत निशीथ की भूमिका के रूप में तत्सम्बद्ध आवश्यक विषयों का व्याख्यान किया गया है। निशीथ शब्द का अर्थ है - अप्रकाश। इसमें आचार, अग्र, प्रकल्प, चूलिका एवं निशीथ का वर्णन है। विधि निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, दोष- प्रायश्चित्त आदि का विस्तृत वर्णन बीस उद्देश्यों के अन्तर्गत किया गया है। इन सब बातों का ज्ञान संयमी साधक को होना ही चाहिये, जिससे वह ध्यानावस्था में स्थिर रह सकता है। ध्यान जीवन विकास क्रम की श्रेष्ठ प्रक्रिया है।
चूर्णिकार ने इसमें सर्व प्रथम छह प्रकार की चूला का वर्णन किया है । ५०
प्रस्तुत चूर्णि के सम्पादक उपाध्याय अमर मुनि और मुनि कन्हैयालालजी 'कमल' द्वारा सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा से प्रकाशित है । ५१
दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि और बृहत्कल्पचूर्णि :- ये दोनों चूर्णियाँ मूलसूत्र, निर्युक्ति एवं लघुभाष्य के आधार पर लिखी गई हैं। दोनों पाठों में समानता है। ज्ञानविषयक चर्चा के अन्तर्गत अवधिज्ञान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया है। ज्ञान के अन्तर्गत ही ध्यानयोगी का स्वरूप वर्णित है। ध्यान साधक के जीवन में आने वाले विघ्नों का भी वर्णन है और साथ ही साथ ध्यान में स्थिरता लाने वाले सहायक तत्त्वों का भी उल्लेख है।
टीकाएँ
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निर्युक्तियाँ, भाष्य एवं चूर्णियों के बाद जैनाचार्यों ने विषयों को अधिक स्पष्ट करने के लिए करीबन सभी आगम ग्रन्थों पर एक-एक टीका लिखी। वे सभी संस्कृत में हैं। भाष्य आदि का विस्तृत विवेचन नये-नये हेतुओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है।
टीकाकारों में मुख्यतः जिनभद्र गणि, हरिभद्र सूरि, शीलांकाचार्य, वादिवेतालशान्तिसूरि, अभयदेव सूरि, मलयगिरि और मलधारी हेमचन्द्र आदि प्रमुख है। इन आचार्यों के अतिरिक्त अन्य भी अनेक टीकाकारों के नाम मिलते हैं जिनमें से कुछ की टीकाएँ उपलब्ध हैं और कुछ की अनुपलब्ध हैं।
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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