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________________ प्रायश्चित्त बताया है। ये सब प्रायश्चित्त स्थविरकल्पियों की दृष्टि से हैं। जिनकल्पियों के लिए भी इनका वर्णन है किंतु वे इन अतिचारों का सेवन नहीं करते। मूलगुण और उत्तर गुणों में लगनेवाले दोषों से मुक्ति पाने के लिए ही प्रायश्चित्त का विधान है। पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह - इन सबको भाष्यकार ने उत्तरगुणान्तर्गत लिया है। इनके क्रमशः बयालीस, आठ, पच्चीस, बारह और चार भेद किये हैं। प्रायश्चित्त करनेवाले चार प्रकार के पुरुष बताये हैं - उभयतर, आत्मतर, परतर और अन्यतर। इस भाष्य में दस प्रकार के प्रायश्चित्त का विस्तृत वर्णन है। परिहार तप में लगनेवाले दोषों का विस्तृत वर्णन है। गीतार्थ दो प्रकार के हैंगच्छगत और गच्छनिर्गत। गच्छनिर्गत जिनकल्पिक गीतार्थ है। परिहार विशुद्धक, यथालन्दककल्पिकप्रतिमापन्न एवं स्थविर कल्प गीतार्थ के लिए भी प्रायश्चित्त का विधान है। वैसे ही अगीतार्थ के लिए भी प्रायश्चित्त का वर्णन है। नवम उद्देश में साधु की विविध प्रतिमाओं का विधान है। मोक प्रतिमा का शदार्थ, मोक का स्वरूप तथा महती, मोक का लक्षण आदि विविध प्रतिमा पर विस्तृत वर्णन है। पांच चरित्र के व्याख्यान में प्रथम सामायिक चारित्र सम्पन्न स्थविरकल्पिकों के लिए छेद और मल को छोड़कर शेष आठ प्रायश्चित्तों का (आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, अनवस्थाप्य और पारचित) विधान है। जिनकल्पिकों के लिए आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग और तप इन छह प्रायश्चित्तों का वर्णन है। छेदोपस्थापनीय संयम में स्थित स्थविरों के लिए सभी प्रकार के प्रायश्चित्त हैं और जिनकल्पिकों के लिए आठ प्रकार के प्रायश्चित्त हैं। परिहारविशुद्धिक संयम में स्थित संयमी के लिए भी आठ ही प्रकार के प्रायश्चित्त हैं। जिनकल्पिकों के लिए मूल और छेद को छोड़कर छह प्रकार के प्रायश्चित्त हैं। सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र में विद्यमान संयमी के लिए आलोचना और विवेक ये ही दो प्रायश्चित्त हैं। प्रायश्चित्त, प्रतिमा और पंच चारित्र की साधना ही ध्यान की साधना है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान का स्वरूप इन सब में से प्राप्त होता है। यह मलयगिरिविवरण सहित अहमदाबाद से प्रकाशित है। (५) ओघनियुक्ति - लघु भाष्य :- प्रस्तुत भाष्य में व्रत, श्रमण धर्म, संयम, वैयावृत्य, ब्रह्मचर्य-गुप्ति, ज्ञानावरणादि, तप, क्रोधनिग्रहादि, चरण, पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिग्रह, प्रतिलेखना, गुप्ति, अभिग्रह, करण एवं चार अनुयोग (चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग व द्रव्यानुयोग), ग्लानादि साधु की चर्या, शकुनापशकुन का विचार एवं कायोत्सर्ग विधि इत्यादि इन सब विषयों का जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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