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________________ लघुभाष्य होते हुये भी इसमें ६४९० गाथाएं हैं। छह उद्देश्यों में विभक्त हैं। भाष्य के प्रारंभ में पीठिका है जिसकी गाथा संख्या ८०५ है। ___पीठिका में मंगलाचरण रूप में पांच ज्ञान का वर्णन किया है। उनमें श्रुतज्ञान के वर्णन के अन्तर्भाव सम्यक्त्व प्राप्ति के क्रम में औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक एवं क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप स्पष्ट किया है। पीठिका के बाद भाष्यकार प्रत्येक मूल सूत्र का व्याख्यान प्रारंभ में करते हैं। प्रथम उद्देश्य में ताल, तल और प्रलम्ब शद का अर्थ स्पष्ट किया है। तलवृक्ष संबंधी फल को ताल, तदाधार भूत वृक्ष का नाम तल और उसके मूल को प्रलम्ब कहा है। तत् संबंधी लगनेवाले दोषों को दूर करने के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक विषयों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया गया है। विशेषतः ध्यान संबंधी श्रमणों की विशिष्ट साधना जिनकल्प, स्थविरकल्प, यथालन्द तथा परिहार विशुद्ध कल्प आदि पर अति विस्तार के साथ वर्णन किया है। इस वर्णन के साथ ही साथ प्राचीन भारत की सांस्कृतिक सामग्री का भी वर्णन है। इन पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अध्ययन हो सकता है। एवं तत्कालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों की विपुल सामग्री उपलब्ध होती है। प्रस्तुत भाष्य में श्रमणाचार के अन्तर्गत ही ध्यान का वर्णन किया है। सभी साधना का मूल ध्यान ही है। यह इसमें स्पष्ट किया गया है। यह मुनि चतुरविजय और पुण्यविजयजी द्वारा भावनगर से प्रकाशित है।३७ (४) व्यवहार भाष्य : प्रस्तुत कृति भी बृहत्कल्प-लघुभाष्य की भाँति ही श्रमणाचार से संबंधित है। इसमें दस उद्देश हैं। इसके प्रारंभ में पीठिका है। जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम व्यवहार, व्यवहारी तथा व्यवहर्तव्य की निक्षेप-पद्धती से व्याख्या की है। उसके साथ ही साथ गीतार्थ और अगीतार्थ के स्वरूप का भी दिग्दर्शन किया है। ___ व्यवहार आदि में दोषों की संभावना होती है। इसलिए प्रायश्चित्त का विधान किया है। प्रायश्चित्त का अर्थ, निमित्त, अध्ययनविशेष, तदहपर्षद आदि दृष्टियों से विवेचन किया है। तथा प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपण और परिकुंचना इन चारों के लिए चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विस्तृत वर्णन है। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन चार प्रकार के आधाकर्मादि के लिए क्रमशः मासगुरु, मासगुरु और कालगुरु, तपोगुरु और कालगुरु तथा चतुर्गुरु ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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