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________________ कषायादि के उदय से दर्शनादि सामायिक की प्राप्ति नहीं हो सकती अथवा होकर भी नष्ट हो जाती है। मुख्यतः कषाय चार ही है- क्रोध, मान, माया और लोभ । अनंतानुबंधी चतुष्क, अप्रत्याख्यानी चतुष्क और प्रत्याख्यानी चतुष्क इन बारह प्रकार की कषायों का क्षय, उपशम और क्षयोपशम होने पर ही मनोवाक्काय रूप प्रशस्त हेतुओं से चारित्र लाभ होता है। चारित्र पाँच प्रकार का है - सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहार विशुद्ध चारित्र, सूक्ष्म संपराय चारित्र और यथाख्यात चारित्र । इनमें परिहार विशुद्ध चारित्र पर विशेष वर्णन किया गया है जो कि श्रमणों की विशिष्ट साधना पद्धति है। प्रस्तृत भाष्य में ध्यान से संबंधित अनेक विषयों पर विचार किया गया है। कर्मक्षय का मुख्य साधन ध्यान ही है। (२) जीतकल्प भाष्य : यह जिनभद्र की द्वितीय कृति है। इसमें १०३ प्राकृत गाथाएँ हैं। इसमें 'जीत व्यवहार' के आधार पर दिये जानेवाले प्रायश्चित्तों का वर्णन है। 'प्रायच्छित्त' और 'पच्छित्त' इन दो शब्दों की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो पाप का छेद करता है वह "प्रायच्छित्त" है, तथा जिससे चित्त शुद्ध होता है वह 'पच्छित्त' है। यही ध्यान की प्रक्रिया है। प्रस्तृत भाष्य में 'जीतव्यवहार' का व्याख्यान करने के हेतु भाष्यकार ने आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और व्यवहार रूप पंचक व्यवहार का विवेचन किया है। प्राचीनकाल में प्रायश्चित्तदाता केवली और चतुर्दशपूर्वधर माने जाते थे, किन्तु वर्तमान में वे नहीं हैं। तथापि प्रायश्चित्त - विधि का विधान प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु के आधार से विद्यमान कल्प, प्रकल्प तथा व्यवहार ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। वे ग्रन्थ आज भी विद्यमान हैं। अतः इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान किया जा रहा है । प्रायश्चित्त से चारित्र की शुद्धि होती है। बिना प्रायश्चित्त के चारित्र स्थिर नहीं रह सकता, चारित्र के अभाव में तीर्थंकर नहीं बन सकता, तीर्थंकर के बिना निर्वाण नहीं, निर्वाण लाभ के अभाव में कोई दीक्षित नहीं हो सकता, दीक्षित साधु के अभाव में तीर्थ भी नहीं रहेगा। अतः तीर्थ को टिकाये रखने के लिए प्रायश्चित्त का होना आवश्यक है। प्रायश्चित्त के दस भेदों का इसमें विस्तृत वर्णन है। विशिष्ट श्रमणों की साधना छह कल्पस्थिति में विभाजित है- सामायिक, छेद निर्विशमान, निर्विष्ट, जिनकल्प, स्थविरकल्प, परिहार कल्प। इनमें से जिन कल्प और स्थविर कल्प का विस्तृत वर्णन है। ये सभी ध्यान साधना के पोषक हैं। इनके बिना ध्यान साधना विकसित नहीं हो सकती। (३) बृहत्कल्प- लघु भाष्य : प्रस्तुत कृति संघदास गणि क्षमाश्रमण की है। यह जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ६१ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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