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विश्लेषण के साथ ही साथ फल, योग, मंगल, समुदायार्थ, दारोपन्यास, तद्भव, निरुक्त, क्रम प्रयोजन आदि दृष्टियों से विचार किया गया है। फलद्वार के अन्तर्गत ही ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मोक्ष बताया है। उसके लिए सर्वप्रथम सामायिक आवश्यकता जरूरी है। सामायिक का लक्षण समभाव है। समभाव की साधना ही ध्यान है। ध्यान की योग्यता के लिए श्रुत का ज्ञान, श्रमणों की विशिष्ट साधना-क्रम का ज्ञान आवश्यक बताया
'आवश्यक' का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप चार प्रकार से निक्षेप किया गया है। प्रस्तुत भाष्य में द्रव्यावश्यक की आगम और नोआगम आगम रूप से व्याख्या की गई है। आगम, नो आगम के भेद से भावावश्यक की व्याख्या की गई है। नो आगम रूप भावावश्यक तीन प्रकार का है। लौकिक, लोकोत्तर और कुप्रावचनिक। इन तीनों में लोकोत्तर भावावश्यक ही प्रशस्त है। उसी का इसमें अधिकार है। आवश्यक श्रुतस्कन्ध के छहः अध्याय है१) सामायिकाधिकार - का अर्थाधिकार सावद्ययोगविरति है। २) चतुर्विशतिस्तव - का अर्थाधिकार गुणोत्कीर्तन है। ३) वन्दनाध्ययन - का अर्थाधिकार गुणी गुरु की प्रतिपत्ति है। ४) प्रतिक्रमणाध्ययन - का अर्थाधिकार श्रुतशील स्खलन की निंदा है। ५) कार्योत्सर्गाध्ययन - का अर्थाधिकार अपराध व्रण चिकित्सा है। ६) प्रत्याख्यानाधिकार - का अधिकार गुण धारणा है।
सामायिक दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप से तीन प्रकार की है। सामायिक के लाभ विवेचन में कर्मों की स्थिति का वर्णन है। आठों कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के विद्यमान होने पर जीव को चार प्रकार की सामायिक (सम्यक्त्व, श्रुत, देश विरति और सर्वविरति) में से एक का भी लाभ नहीं हो सकता। सम्यक्त्व प्राप्ति के क्रम में तीन करणों पर प्रकाश डाला गया है और ग्रन्यिभेदन का विशेष वर्णन किया है।
उपरोक्त चार सामायिक की प्राप्ति भाष्यकार के कथनानुसार आयु कर्म को छोड़कर शेष कर्मों की स्थिति कुछ न्यून कोडाकोडी सागरोपम के रहते सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, उसमें से पल्योपम-पृथक्त्व का क्षय होने पर देशविरति श्रावक की, उसमें से भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर चारित्र की, उसमें से संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर उपशम श्रेणी की और उसमें भी संख्यात सागरोपम का क्षय होने पर क्षपक श्रेणी की प्राप्ति होती है। क्षपक श्रेणी के बाद ही जीव को शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है। यही ध्यान की चरमसीमा है।
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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