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पिण्ड के नौ प्रकार बताये हैं - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इन सबके सचित्त, अचित्त और मिश्र ऐसे तीन-तीन भेद है।
प्रस्तृत नियुक्ति में श्रमण-श्रमणियों को ४२ दोषों (१६ उद्गम के, १६ उत्पादन के और १० एषणा के) को टालकर भिक्षा लेने का वर्णन किया है। शुद्ध आहार से ही ध्यान सिद्ध किया जा सकता है। ___ओपनियुक्ति : यह भी आचार्य भद्रबाहु की ही कृति है। इसमें श्रमणाचार का विस्तृत वर्णन है और बीच-बीच में अनेक कथाएं भी हैं। प्रस्तृतकृति में प्रतिलेखनद्वार, पिण्डद्वार, उपाधिनिरूपण, अनायतनवर्जन, प्रतिसेवनद्वार, आलोचनाद्वार - और विशुद्धिद्वार आदि द्वारों का निरूपण किया गया है।
विशुद्धि द्वार के अन्तर्गत ही ध्यान का विश्लेषण (किया गया) है। जीवन से भ्रष्ट हो जाने पर तप के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है। परिणामों की शुद्धि ही मोक्ष का कारण है। संयम के लिए ही देह धारण किया जाता है। देह के अभाव में संयम की साधना कैसे हो सकती है? अतः संयम साधनार्थ ही देह की रक्षा होनी चाहिये।
अयत्नाशील साधु की ईर्या पथ आदि क्रिया कर्म बंध का कारण बनती है और यत्नाशील साधु के लिए निर्वाण का कारण होती है। अतः योगी के लिए तीन प्रकार की एषणा का वर्णन है। गवैषणा, ग्रहणैषणा और प्रासैषणा। ग्रहणैषणा में आत्मविराधना, संयम-विराधना और प्रवचन विराधना नामक दोषों का वर्णन है। ग्रासैषणा में साधु के आहार का विधान है। इसके अतिरिक्त जिनकल्पियों के बारह उपकरण और स्थविरकल्पियों के चौदह उपकरणों का वर्णन है और आर्यिकाओं के लिए पच्चीस उपकरणों का।
ध्यान संबंधी साहित्य (२) भाष्य : आगमों की प्राचीनतम पद्मात्मक टीकाएं नियुक्तियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका उद्देश्य केवल पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था। इसके कारण नियुक्तियों की व्याख्यान-शैली गूढ़ एवं जटिल हो गई । अन्य व्याख्याओं की सहायता के बिना नियुक्तियों की अनेक बातें समझ में नहीं आने लगी। इसीलिए नियुक्तियों के गूढार्थ को स्पष्ट करने के लिए ही आचार्यों ने उन पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखीं। नियुक्ति के आधारपर अथवा स्वतंत्र रूप से लिखी गई पद्मात्मक व्याख्याएं भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हुई हैं। नियुक्तियों की भांति ही भाष्य भी प्राकृत में ही है।
भाष्य एवं भाष्यकार : जैसे सभी आगम पर नियुक्तियां नहीं लिखी गई वैसे ही
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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