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किया गया है और नौवें दशवें में क्रमशः मोहनीय स्थान का तथा 'आजाति' जन्म-मरण का क्या कारण है और 'अनाजाति' मोक्ष किस प्रकार प्राप्त हो? आदि का वर्णन है।
प्रस्तुत नियुक्ति में समाधि शब्द के अन्तर्गत ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है।
(७) बृहत्कल्पनियुक्ति : प्रस्तुत नियुक्ति में 'मंगल' और 'अनुयोग' शब्द का निक्षेप-पद्धति से विवेचन किया गया है। श्रमण धर्म से संबंधित साधना में आवश्यक विधि-विधान, उत्सर्ग-अपवाद, दोष-प्रायश्चित्त आदि का व्याख्यानात्मक वर्णन के साथ ही साथ श्रमणों की विशिष्ट साधना पद्धति (जिनकल्प व स्थविरकल्प) का भी वर्णन किया है। इसी के अंतर्गत ध्यान का विश्लेषण किया है।
__ अनार्य क्षेत्र में विचरण करने से लगनेवाले दोषों का स्कन्दकाचार्य के दृष्टांत द्वारा तथा आर्य क्षेत्र में विचरण करने से ज्ञान-दर्शन-चारित्र की रक्षा एवं वृद्धि के लिए संप्रतिराजा के दृष्टान्त से समर्थन किया है।
ज्ञान दर्शन चारित्र की साधना आर्याक्षेत्र में ही सुलभ है। स्थान की दृष्टि से भी ध्यान का स्थान आर्य क्षेत्र ही है।
(८) व्यवहार -नियुक्ति : प्रस्तुत नियुक्ति में बृहत्कल्प नियुक्ति में कथित विषयों का ही अधिकतर विवेचन है। इसमें ध्यान संबंधी भिक्षु पडिमा और अन्य पडिमाओं का व्याख्यात्मक वर्णन है। अन्य नियुक्तियाँ
उपरोक्त आठ नियुक्तियों के अतिरिक्त पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति, निशीध नियुक्ति और संसक्त नियुक्ति भी मिलती हैं। अन्तिम नियुक्ति तो बहुत बाद के आचार्य की रचना है। प्रथम की तीन नियुक्तियां स्वतंत्र ग्रन्थ न होकर क्रमशः दशवैकालिक नियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति और बृहत्कल्पनियुक्ति के ही पूरक
अंग है। निशीथनियुक्ति भी आचारांग का ही पूरक है। फिर भी भद्रबाहु द्वारा रचित पिण्ड नियुक्ति और ओघनियुक्ति का कलेवर विशालकाय होने से उसपर भी अलग सा विचार किया जा रहा है।
पिण्डनियुक्ति : प्रस्तुत नियुक्ति भद्रबाहु द्वारा रचित है। इसमें आठ अधिकार और ६७१ गाथाएँ हैं। दशवैकालिक का पंचम अध्याय पिंडेषणा का है। उस पर लिखित नियुक्ति विस्तृत होने से इसका नाम अलग सा रखा गया है। इसके आठ अध्याय में ध्यान साधना में आनेवाले विघ्नों का वर्णन है। जैसे १) उद्धमदोष, २) उत्पादन-दोष, ३) एषणा दोष, ४) संयोजना, ५) प्रमाण, ६) अंगार, ७) धूम और (८) कारण
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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