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द्वार आदि का विस्तृत वर्णन करने के बाद मंगल पाठ, नमस्कार रूप में सामायिक नियुक्ति की सूत्रस्पर्शिक व्याख्या का प्रारंभ करते हैं।
द्वितीय अध्याय में 'चर्तुविंशतिस्तव' का वर्णन है। 'चतुर्विंशति' शब्द का छह प्रकार से और 'स्तव' शब्द का चार प्रकार से निक्षेप पद्धति द्वारा वर्णन किया है।
तृतीय अध्याय 'वन्दना' का है। वन्दनाकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये पांच सामान्यतः वन्दना के पर्यायवाची शब्द हैं।
__ चतुर्थ अध्याय में 'प्रतिक्रमण' का उल्लेख है। प्रतिक्रमण-पर तीन प्रकार से विचार किया गया है। (१) प्रतिक्रमण रूप क्रिया (२) प्रतिक्रमण का कर्ता (प्रतिक्रामक) और (३) प्रतिक्रन्तव्य - प्रतिक्रमितव्य अशुभयोग रूप कर्म। जीव पापकर्मयोगों का प्रतिक्रामक है। अतः जो ध्यान, प्रशस्त योग है, उसका साधु को प्रतिक्रमण नहीं करना चाहिये। प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा, शुद्धि ये सभी प्रतिक्रमण शब्द के पर्यायवाची हैं।
पांचवां अध्याय 'कायोत्सर्ग का है। इसी में प्रायश्चित्त के दस भेद बताये हैं। बाद में कायोत्सर्ग की व्याख्या की है। कायोत्सर्ग और व्युत्सर्ग एक ही पयार्यवाची शब्द है। कायोत्सर्ग का अर्थ व्रण चिकित्सा किया गया है। व्रण दो प्रकार का है। (१) तदुद्भव (कायोत्थ) और (२) आगन्तुक (परोत्थ)। इनमें से यहां पर आगन्तुक व्रण का शल्योद्धरण किया गया है। शल्योद्धरण की विधि शल्य की प्रकृति के अनुरूप होती है। जैसा व्रण होता है वैसी ही उसकी चिकित्सा होती है। यह तो बाह्य चिकित्सा की बात हई। आभ्यन्तर व्रण चिकित्सा की भी अलग-अलग विधियाँ है। भिक्षाचर्या से उत्पन्न व्रण चिकित्सा की भी अलग-अलग विधियाँ है। भिक्षाचर्या से उत्पन्न व्रण आलोचना से ठीक हो सकता है। व्रतों के अतिचारों की शुद्धि प्रतिक्रमण से होती है। किसी अतिचार की शुद्धि कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग) से होती है। कोई कोई अतिचार तपस्या से शुद्ध होते हैं। इस प्रकार आभ्यन्तर व्रण चिकित्सा के अनेक उपाय है।
कायोत्सर्ग की व्याख्या करते समय नियुक्तिकार ने निम्नलिखित ग्यारह द्वारों का आधार लिया है। (१) निक्षेप (२) एकार्थक (३) शब्द (४) विधान मार्गणा (५) काल प्रमाण (६) भेदपरिमाण (७) अशठ (८) शठ (९) विधि (१०) दोष (११) अधिकारी और (१२) फल। इनमें भेदपरिमाण की चर्चा के अन्तर्गत नौ भेदों की गणना करते है। (१) उच्छितोच्छित (२) उच्छित (३) उच्छितनिष्पण्ण (४) निषण्णोच्छित (५) निषण्ण (६) निषण्णनिषण्ण (७) निर्विण्णोच्छित (८) निविण्ण और
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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