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________________ पूर्व आगमों में बताया गया है कि संयम मार्ग में नारी का संसर्ग त्याज्य है । परन्तु इसमें कमलावती राणी, व राजीमती कथा द्वारा स्पष्ट किया गया है कि धर्म भ्रष्ट राजा और संयम भ्रष्ट साधु को सही मार्ग दिखाने वाली नारी ही है। उसके दो रूप हमारे सामने दृष्टिगोचर होते हैं ज्योति और ज्वाला के रूप में। इस प्रकार प्रस्तुत आगम में चरण-करणानुयोग और धर्मकथानुयोग द्वारा धर्मध्यान व शुक्लध्यान का स्वरूप एवं फल विवेचन किया है। प्रस्तुत मूल आगम लुधियाना से तीन भागों में प्रकाशित है। २) दशवैकालिक :- यह जैनागम साहित्य का द्वितीय मूल सूत्र है। इसके कर्ता शय्यंभवाचार्य हैं। उन्होंने अपने पुत्र 'मणग' की छह मास ही आयु शेष रहने के कारण, उसे संपूर्ण श्रमणाचार का ज्ञान कराने हेतु इस आगम का निर्माण किया। इसके दस अध्याय और दो चूलिकाएँ हैं। चूलिकाएँ शय्यंभवाचार्य की नहीं है ऐसा माना जाता है। ध्यान करने की योग्यता किसमें हो सकती है? इसका प्रतिपादन प्रस्तुत आगम में है । जो साधक अहिंसा, संयम और तप की आराधना (साधना) से भ्रमर भिक्षा ग्रहण करके, ५२ अनाचार को टालकर, छह जीवनिकाय जीवों का रक्षक बनकर श्रमणाचार का पालन करता है वही ध्यानयोग का सच्चा साधक है। संयमी साधक को कैसे भिक्षा ग्रहण करना ? किससे करना ? कब करना ? कैसे चलना ? कैसे बोलना ? आदि बातों का सूक्ष्म रूप से इसमें वर्णन किया गया है। ध्यानयोगी के लिए वाक् शुद्धि आवश्यक है। शरीर में बल हो तब तक ही साधना का प्रारंभ करना चाहिये, क्योंकि क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सबका विनाश करता है। अतः ध्यान साधक को क्रोध के उपशम से, मान को मृदुता से, माया को आर्जव और लोभ को संतोष से जीतना चाहिये। कषाय और स्त्री संसर्ग ही भवभ्रमण का कारण । अतः इनसे दूर रहे। है। विनीत शिष्य सर्व सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। अविनीत के लिये कोई सिद्धि नहीं। 'गुरुकृपा' से ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। गुरुकृपा 'विनय' से प्राप्त की जाती है। यदि मानो कि आसीविष सर्प के डंख मारने से, गिरिकन्दरा से गिरने से, अग्नि में गिरने से, जल में डूबने से उसी भव में मृत्यु हो जाती है। परन्तु आचार्य अथवा गुरु के अप्रसन्न होने से बोध (सम्यक्त्व) की प्राप्ति ही नहीं होती। समाधि में लीन होने के लिये साधक को विनय समाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचार समाधि से युक्त होना चाहिए। जो मन, वचन और काय का संयत है वही सच्चा साधक (भिक्षु) है। आठ मदों का त्यागी और धर्म ध्यान का आराधक ही सच्चा साधक (भिक्षु) है। ४८ Jain Education International ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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