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________________ ५६ खजुराहो का जैन पुरातत्त्व जैन ग्रंथों में ल० छठी-सातवीं शती ई० में यक्ष-यक्षी युगल के रूप में सर्वप्रथम सर्वानुभूति (सर्वोह या यक्षेश्वर) और अंबिका का उल्लेख हुआ है। यही यक्ष-यक्षी युगल मूर्तियों में सबसे पहले निरूपित हुए। मूर्त अंकनों में भी सर्वत्र यही युगल सबसे अधिक लोकप्रिय थे । ल० छठी से नवीं शती ई० के मध्य की मूर्तियों में सभी जिनों के साथ यक्ष-यक्षी के रूप में सर्वानुभूति एवं अंबिका ही निरूपित हैं। हरिवंश पुराण ( ७८३ ई० ) और महापुराण ( ९६० ई० ) में सिंहवाहिनी अंबिका तथा अप्रतिचक्रा एवं सिद्धायिका आदि यक्षियों के नामोल्लेख हैं । ल० आठवी-नवीं शती ई० में यद्यपि चौबीस यक्ष और यक्षियों के नामों की सूची बनी किन्तु उनके स्वतंत्र लक्षण ११वीं-१२वीं शती ई० में ही निर्धारित हुए।२ शिल्प में ल० १०वीं शती ई० में ऋषभनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर के साथ सर्वानुभूति और अंबिका के स्थान पर पारंपरिक या स्वतंत्र लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण प्रारंभ हुआ। अधिकांश उदाहरणों में ऋषभनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के साथ गोमुखचक्रेश्वरी, सर्वानुभूति-अंबिका एवं धरणेन्द्र-पद्मावती का अंकन हुआ है। देवगढ़ और खजुराहो की कुछ मूर्तियों में महावीर के साथ स्वतंत्र लक्षणों वाले मातंग और सिद्धायिका की अकृतियाँ बनी हैं । स्वतंत्र मूर्तियों में भी गोमुख-चक्रेश्वरी एवं सर्वाल (या सर्वानुभूति या कुबेर)-अंबिका की ही सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं। यक्षों की अपेक्षा यक्षियों की मूर्तियाँ अधिक हैं जो संभवतः जैन धर्म में शक्ति उपासना के विशेष प्रभावी होने का संकेत है। २४ यक्षियों के सामूहिक अंकन के तीन उदाहरण मिलते हैं, पर यक्षों के सामूहिक अंकन का प्रयास नहीं किया गया। २४ यक्षियों की सामूहिक मूर्तियाँ देवगढ़ ( ललितपुर, उ०प्र० मंदिर-१२, ८६२ ई०), पतियानदाई ( अंबिका मूर्ति, सतना, मध्य प्रदेश, ११वीं शती ई० ) एवं वारभुजी गुफा ( खण्डगिरि, पुरी, उड़ीसा, ल० ११वीं-१२वीं शती ई० ) में हैं। खजुराहो की यक्ष-यक्षी मूर्तियाँ : सामान्य निरूपण खजुराहो में जिनों के पश्चात् यक्ष और यक्षियों की ही सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं । जिन मूर्तियों के सिंहासन छोरों पर अंकन के साथ ही इनकी स्वतंत्र मूर्तियाँ भी बनीं । स्वतंत्र मूर्तियों में इन्हें सामान्यतः ललितमुद्रा में और शीर्ष भाग में एक छोटी जिन आकृति के साथ दिखाया गया । खजुराहो में सभी २४ यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ नहीं हैं। सामान्यतः इनके निरूपण में, विशेषतः विशिष्ट लक्षणों के सन्दर्भ में, उपलब्ध दिगम्बर ग्रंथों के निर्देशों का पालन हुआ है। किन्तु स्वतंत्र लक्षणों वाली यक्ष-यक्षी मूर्तियाँ भी हैं जो किसी स्थानीय परंपरा से निर्देशित प्रतीत होती हैं। यक्षों की अपेक्षा यक्षियों की मूर्तियाँ अधिक हैं और उनके निरूपण में स्वरूपगत वैविध्य भी दृष्टिगत होता है। यक्षों में केवल सर्वानुभूति (या कुबेर) की ही स्वतंत्र मृतियाँ मिली हैं । ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ के गोमुख और धरणेन्द्र यक्षों का निरूपण केवल जिनसयुंक्त मूर्तियों में ही हुआ है। दूसरी ओर यक्षियों में जैन धर्म के चारों प्रमुख जिनों, १. तिलोयपण्णत्ति ४. ९३४-३९; प्रवचनसारोद्धार ३७५-७८ । २. निर्वाणकलिका (ल० ११वीं शती ई०); त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र ( १२वीं शती ई०); प्रतिष्ठासारसंग्रह (१२वीं शती ई०); प्रतिष्ठासारोद्धार एवं प्रतिष्ठातिलकम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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