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अध्याय- ५
यक्ष-यक्षी मूर्तियाँ
सामान्य विकास
जैन देवकुल में २४ जिनों के पश्चात् उनके यक्ष-यक्षियों को ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । जिनों के साथ और स्वतंत्र रूप में इनका अनेकशः अंकन हुआ है। जैन ग्रंथों में इनका यक्ष और पक्षियों के अतिरिक्त जिनों के शासन तथा उपासक देवों के रूप में भी उल्लेख हुआ है ।" प्रत्येक जिन के साथ एक यक्ष-यक्षी युगल की कल्पना की गयी जो उनके चतुर्विध संघ के शासक और रक्षक देव होते हैं । जैन मान्यता के अनुसार समवसरण में जिनों के धर्मोपदेश के पश्चात् इन्द्र ने प्रत्येक जिन के साथ सेवक देवों के रूप में एक यक्ष और एक यक्षी को नियुक्त किया । शासन देवताओं के रूप में सर्वदा जिनों के समीप रहने के कारण ही जैन देवकुल में जिनों के बाद यक्ष और यक्षियों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली। जिन मूर्तियों में यक्ष और यक्षी सिंहासन या पीठिका के क्रमशः दाहिने ओर बायें छोरों पर निरूपित हैं । इन्हें अधिकांशतः ललितमुद्रा में दिखाया गया है । ल० छठी शती ई० में जिन मूर्तियों में और ल० नवीं शती ई० में स्वतंत्र मूर्तियों के रूप में यक्ष-यक्षियों का अंकन प्रारम्भ हुआ । स्वतंत्र मूर्तियों में यक्ष और यक्षियों के शीर्ष भाग में छोटी जिन आकृतियाँ भी बनी हैं जिनसे जिनों की यक्ष-यक्षियों पर श्रेष्ठता और साथ ही उनके जैन देवकुल से संबंधित होने का भाव व्यक्त किया गया है । २४ यक्ष एवं यक्षियों की सूची में अधिकांश के नाम एवं उनकी लाक्षणिक विशेषतायें ब्राह्मण और कुछ उदाहरणों में बौद्ध देवकुल के देवताओं से प्रभावित हैं । जैन धर्म में ब्राह्मण देवकुल के विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्दकात्तिकेय, काली, गौरी, सरस्वती, चामुण्डा और बौद्ध देवकुल की तारा, वज्रशृंखला, वज्रतारा एवं वज्रांकुशी के नामों और लक्षणों को ग्रहण किया गया । ऋषभनाथ के यक्ष-यक्षी गोमुख और चक्रेश्वरी हैं जो शैव एवं वैष्णव धर्मों के प्रतिनिधि देवताओं शिव और वैष्णवी से संबंधित प्रतीत होते हैं ।
१. प्रशासनाः शासनदेवताश्च या जिनांश्चतुर्विंशतिमाश्रिताः सदा । हिताः सतामप्रतिचक्रयान्विताः प्रयाचिताः सन्निहिता भवन्तु ताः ॥ हरिवंशपुराण ६६. ४३-४४ २. शाह, यू०पी०, “इन्ट्रोडक्शन आफ शासनदेवताज इन जैन वशिप", प्रोसीडिंग्स ऐण्ड ट्रान्जेक्शंस आफ ओरियन्टल कान्फ्रेंस, बीसवाँ अधिवेशन, भुवनेश्वर, अक्टूबर १९६८, पृ० १५१-५२; बनर्जी, जे० एन०, दि डेवलपमेंट आफ हिन्दू आइकनोग्राफी, कलकत्ता, १९५६, पृ० ५६१-६३; भट्टाचार्य, बी०, दि इण्डियन बुद्धिस्ट आइकनोग्राफी, कलकत्ता, १९६८, १०५६, २३५, २४०, २४२, २९७ ।
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