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प्रस्तावना
भाव व्यक्त करती हैं और रूपयष्टि को साकार और मनभावन अभिव्यक्ति लगती हैं। प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से भी ये मूर्तियाँ अत्यन्त विकसित कोटि की हैं और इनमें लक्षणों और सहायक आकृतियों से सम्बन्धित विवरणों की प्रमुखता है, जो मध्यकालीन मूर्तिकला की एक सामान्य विशेषता रही है। मध्यकालीन मूर्तियों में प्रतिमालक्षण की दृष्टि से मूर्तियों के क्लिष्ट होने तथा देवमूर्ति निर्माण में कलाकार की पूरी तरह शास्त्रीय ग्रन्थों पर निर्भरता के कारण कला में यान्त्रिकता का भाव प्रकट हुआ। यह बात खजुराहो की मूर्तियों में भी पूरी तरह स्पष्ट है। खजुराहो की मूर्तियों में क्रियाशीलता, आनुपातिक अंग योजना तथा शरीर रचना में किंचित् मांसलता और ऐन्द्रिकता का भाव स्पष्ट है। विभिन्न शारीरिक चेष्टाओं तथा तीखे शारीरिक लोचों द्वारा विभिन्न भावों को अभिव्यक्ति की गयी है । आकृतियों के मुख सामान्यतः अण्डाकार और ठुडी गोल हैं। नेत्र, भौंह, नासिका और होठों के निर्माण पर विशेष ध्यान देकर आकृतियों को आकर्षक बनाया गया है । लम्बी आँखों के ऊपर भोहों की पतली एवं वक्र रेखा प्रदर्शित है। खजुराहो-मूर्तियों में कलाकार की आकर्षक मूर्ति रचना की प्रतिभा अप्सरा मूर्तियों में पूरी तरह उजागर हुई है। शरीर के विभिन्न अवयव शास्त्रीय सौन्दर्य के प्रतिमान प्रतीत होते हैं। प्रतिमालाक्षणिक विवरणों से युक्त होने के बाद भी इन मूर्तियों में जीवन का स्पन्दन और उसकी गतिशीलता स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्त है। १० वीं शती ई० के बाद की खजुराहो की मूर्तियों में स्पष्टतः एक अन्तर दिखाई देता है । पार्श्वनाथ एवं लक्ष्मण मन्दिरों की तुलना में कन्दरिया महादेव, आदिनाथ, चतुर्भुज एवं दुलादेव मन्दिरों की मूर्तियाँ शारीरिक रचना की दृष्टि से अपेक्षाकृत अधिक पतली और लम्बी दिखाई देती है। इनमें आभूषणों एवं आकृतियों के मुख तथा शारीरिक मुद्राओं का भी किचित् अस्वाभाविक रूप में अंकन हुआ है । ये मूर्तियां १० वीं शती ई० तक की मूर्तियों की तुलना में आकर्षक भी नहीं हैं और इनकी मुद्राओं में शनैः-शनैः गतिशीलता के स्थान पर स्थिरता का भाव प्रबल होता दिखाई देता है।
__खजुराहो की मूर्तियाँ तीन समूहों में विभाज्य हैं : पहले वर्ग में चारों ओर से कोरकर बनायी गयी मूर्तियाँ आती हैं, जो मुख्यतः गर्भगृह में प्रतिष्ठित हैं। दूसरे वर्ग में मन्दिरों की भित्तियों एवं स्तम्भों पर पर्याप्त उभार में उकेरी तीन आयामों वाली मूर्तियाँ आती हैं । इनमें भित्तियों की विभिन्न देव, अप्सरा एवं दिक्पाल आकृतियाँ सम्मिलित हैं। तीसरे वर्ग में अपेक्षाकृत कम उभरी और विभिन्न गहराइयों में काटकर बनायी गयी मूर्तियाँ आती हैं। इनमें जगती, अधिष्ठान, उत्तरंग एवं शिखर आदि की देव, पशु, अप्सरा मूर्तियाँ तथा रामायण एवं महाभारत और आखेट, युद्ध एवं सामान्य जीवन के दृश्यांकन हैं। खजुराहो का रूपविधान वास्तव में ललित कलाओं का समग्र रूप में आकलन है। इनमें एक ओर चारुतत्त्व का सूक्ष्म अंकन मिलता है तो दूसरी ओर शृंगारिकता का उद्दाम पक्ष भी रूपायित हुआ है।
खजुराहो की मूर्तियों को विषय वस्तु के आधार पर मुख्यतः निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । पहले वर्ग में पूजा के लिए बनी उपास्यदेवों की प्रतिमाएँ आती हैं। प्रायः चारों ओर से कोरकर बनायी गयी पारम्परिक लक्षणों वाली ये मूर्तियाँ
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