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खजुराहो का जैन पुरातत्त्वे
समूह में सर्वाधिक मन्दिर है। इसमें लक्ष्मण, विश्वनाथ, कन्दरिया महादेव, देवी जगदंबी, चित्रगुप्त, चौंसठ योगिनी, लालगुआँ महादेव, मातंगेश्वर, नन्दी, पार्वती, वराह तथा महादेव मन्दिर आते हैं । अन्तिम सात मन्दिर अपेक्षाकृत छोटे किन्तु स्थापत्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पूर्वी समूह में ब्राह्मण और जैन दोनों ही मन्दिर आते हैं। ब्राह्मण मन्दिरों में ब्रह्मा, वामन
और जवारी तथा जैन मन्दिरों में घण्टई, आदिनाथ और पार्श्वनाथ मन्दिर हैं । दक्षिणी समूह में केवल दो मन्दिर दूलादेव और चतुर्भुज है । ये दोनों ही मन्दिर ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित हैं।
खजुराहो के मन्दिरों को सामान्यतः ९५० से १०५० ई० के मध्य निर्मित माना गया है । किन्तु श्री कृष्णदेव ने विविन्न अभिलेखीय साक्ष्यों तथा स्थापत्य, शिल्प एवं अलंकरणों के तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् यह स्पष्ट किया है कि खजुराहो का प्राचीनतम मन्दिर ८५० ई० के पूर्व और अन्तिम मन्दिर ११०० ई० के बाद बना।' कृष्णदेव ने चौंसठ योगिनी, ललगुआँ महादेव, ब्रह्मा, मातंगेश्वर तथा वराह मन्दिरों को प्रारम्भिक तथा अन्य मन्दिरों को परवर्ती मन्दिरों के अन्तर्गत रखा है । मूर्तिकला
शिल्प वैभव की दृष्टि से भी खजुराहो के मन्दिर विशेष महत्व के हैं । अन्यत्र के मध्ययुगीन मन्दिरों की भाँति खजुराहो में भी स्थापत्य एवं मूर्तिकला का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध रहा है । मूर्तियाँ मन्दिरों के विभिन्न भागों पर स्थापत्यगत योजना के साथ पूरा सामंजस्य रखती हुई इस प्रकार उकेरी गई है कि उनसे मन्दिरों के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है । मूर्तियाँ पूरी तरह मन्दिरों का स्वाभाविक अंग प्रतीत होतो हैं । खजुराहो की मूर्तियाँ गुप्तकालीन मूर्तियों के मौलिक विशेषताओं को मध्यकालीन प्रवृत्तियों के साथ संजोये हुए हैं। स्टेला ऊमरिश के अनुसार चन्देल मूर्तिकला में भारतीय मूर्तिकला के मौलिक तत्व पूरी तरह जीवित और क्रियाशील रूप में विद्यमान हैं। इन मौलिक तत्वों ने ही कला की मध्ययुगीन स्वीकृत प्रवृत्तियों को नियंत्रित रखा।
मध्यभारत के केन्द्र में स्थित होने के कारण इसपर पूर्वी और पश्चिमी भारत की कलाओं का प्रभाव पड़ा। भावों की गहनता, शिल्पी की आन्तरिक भावाभिव्यक्ति की क्षमता तथा भव्यता की दृष्टि से ये मूर्तियाँ गुप्त मूर्तियों के समकक्ष नहीं ठहरती, क्योंकि इनमें शारीरिक सौन्दर्य और आकर्षण, विशेषतः स्त्री आकृति के सन्दर्भ में, ऐन्द्रिकता के स्तर पर अभिव्यक्त हुआ है। इन मूर्तियों में शरीर रचना अधिक जटिल तथा तीक्ष्ण एवं वक्र रेखाओं वाली है । मन्दिरों की दीवारों पर उभरी हुई ये मूर्तियाँ चारों ओर से कोरकर बनाये जाने का
१. कृष्णदेव, 'दि टेम्पुल्स ऑव खजुराहो इन सेन्ट्रल इंडिया', पृ० ४९-५१ । २. कनिंघम ने कन्दरिया महादेव मन्दिर के भीतर और बाहर की ओर कुल ८७२ मूर्तियों का
उल्लेख किया है । मूर्तियों की इस अपार संख्या के बाद भी स्थापत्य एवं मूर्ति के बीच का
सामंजस्य बना हुआ है। ३. मेमॉयर्स ऑव आकियोलाजिकल सर्वे आव इण्डिया, अंक ३, पृ० १। .
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