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जेन मूर्तियों के मूर्ति-लेखों से उस काल के धनी-मानी जैन समाज का अच्छा परिचय प्राप्त होता है तथा उनसे चन्देल राजाओं की धार्मिक सहिष्णुता के साथ-साथ जैनों की राज्य-भक्ति एवं उनकी समन्वयात्मक दृष्टि का भी अच्छा बोध होता है।
वर्तमान खजुराहो के विकास की कहानी का अध्याय उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से प्रारम्भ होता है तथा उसमें ब्रिटिश-शासकों, छतरपुर राज्य के नरेश, तत्कालीन समाजप्रमुखों तथा स्वातन्त्र्योत्तर काल में भारत-शासन व राज्य शासनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इस कार्य को अधिक गति उस समय मिली जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सन् १९५०-५१ में श्री वियोगी हरि की प्रेरणा पर खजुराहो पधारे और उनका कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं (सर्वश्री महेन्द्र कुमार 'मानव', कामताप्रसाद सक्सेना, दशरथ जैन, गोकुलप्रसाद महाशय प्रभृति) ने अभिनन्दन किया व खजुराहो के विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए एक लिखित ज्ञापन भेट किया एवं स्वतन्त्र भारत की सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। उसके उपरान्त विगत पैंतीस वर्षों में खजुराहो में जो कुछ हुआ है और हो रहा है, वह सर्वविदित है। उसके लिए भारत-शासन तथा राज्य शासन के पुरातत्त्व तथा पर्यटन विभाग बधाई के पात्र हैं । परन्तु जो नही हुआ है उस ओर यथाशीघ्र ध्यान दिया जाना उचित ही नहीं वरन अति आवश्यक भी है । इस पुनीत कार्य में केन्द्रीय व राज्य शासन के साथ-साथ जनता जनार्दन को भी यथोचित योगदान करना होगा । क्षेत्रीय जैन प्रबन्ध समिति उसके लिए कृत-संकल्प है ।
मध्यप्रदेश भारत का हृदय-स्थल है और खजुराहो मध्यप्रदेश का। इस नाते तथा खजुराहो स्थित विपुल स्थापत्य एवं शिल्प-सम्पदा के नाते खजुराहो भारत का हृदय है । यहाँ स्थित कलाकृतियाँ एवं शिल्पखण्ड समूचे भारत के सांस्कृतिक-मूल्यों, प्रतिमानों एवं आदर्शो की, उसके बल-पौरुष एवं शौर्य के साथ-साथ उसके भौतिक वैभव, सौन्दर्य-बोध व कला-प्रेम की, उसके उच्च जीवन लक्ष्यों के साथ-साथ उसके समर्पित जन-जीवन की गाथायें निरन्तर गाती रहती है। जीवन का कोई कोना ऐसा नहीं है, जिस पर खजुराहो के कलाकार ने अपनी छेनी-हथौड़ी का उपयोग न किया हो। खजुराहो के कलाकार ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों पर आधारित भारतीय संस्कृति का समग्रता में अंकन किया है। केवल काम को सबसे प्रथम कर, उस पर अनावश्यक तौर पर अधिक बल देना (जैसा कि कुछ लोगों द्वारा वर्तमान में किया जा रहा है) उसके साथ घोर अन्याय करना है । इन कलाकृतियों में मध्य-युगीन भारत का जन-जीवन तो प्रतिबिम्बित हुआ ही है, उसका लोक मानस भी अपनी पूरी धड़कनों के साथ अभिलिखित हुआ। खजुराहो का कलाकार स्वर्ग में बैठा होने पर भी अपनी कलाकृतियों के माध्यम से विभिन्न देशों में स्थापित हमारे सहस्रों दूतावासों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावी ढंग से भारत की संस्कृति का सन्देश विश्व के कोने-कोने तक निरन्तर पहुँचाता रहता है । भारत की वास्तुकला तथा शिल्पकला दोनों का सर्वोत्कृष्ट रूप खजुराहो में विकसित होने से, विश्व के कला-जगत में खजुराहो ने अपनी अलग व विशेष पहचान बना ली है । यहाँ का एक-एक शिल्प-खण्ड बेजोड़ है और प्रत्येक शिल्पखण्ड का संरक्षण एवं उसका पुरातात्त्विक अध्ययन किया जाना परमावश्यक है ।
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