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________________ ( iv ) ऐसा प्रतीत होता है कि श्री कनिंघम, श्री फर्गुसन व श्री विन्सेन्ट स्मिथ आदि के बारबार खजुराहो आने तथा उनके द्वारा वहाँ महीनों रहकर विस्तृत सर्वेक्षण करने के कारण राज्य शासन तथा तत्कालीन जैन समाज को इन पुरातत्वीय स्मारकों के संरक्षण की चिन्ता हुई । फलस्वरूप इन मन्दिरों में से अनेक का जीर्णोद्धार उस काल में कराया गया । राज्य शासन ने पश्चिमी व दक्षिणी मन्दिर समूह के मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया तो जैन समाज नेपूर्वी - मन्दिर -समूह ( जैन - मन्दिर समूह ) का जीणोंद्धार कराया । इस बात का सबसे विश्वसनीय प्रमाण श्री कनिंघम की वह रिपोर्ट है, जिसमें उन्होंने बतलाया है कि जनवरी १८५२ ई० में जब वे पहली बार खजुराहो आए थे तब पार्श्वनाथ मन्दिर सौभाग्यवश परित्यक्त अवस्था में था तथा वे अन्दर जाकर निश्चिन्तता से उसका परीक्षण कर सके थे। तदनन्तर किसी जैनसाहूकार द्वारा उसका जोर्णोद्धार करा दिया गया तथा उसमें भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कर दी गयी । फरवरी १८६५ में जब वे पुन: इस मन्दिर का अध्ययन करने पहुँचे तो उन्हें मन्दिर के अन्दर प्रवेश करने से रोक दिया गया और बाहर से ही जाँच-पड़ताल कर उन्हें सन्तोष करना पड़ा। बाहर से उन्होंने यह भी नोट किया कि मंदिर के गर्भगृह के प्रवेश द्वार की छोटी-बड़ी जितनी भी मूर्तियाँ हैं, उन्हें नीले, हरे, लाल व पीले रंगों से रंग दिया गया है, तथा उनके रंगों की चमक से यह स्पष्ट आभास होता है कि उन्हें वार्निस से हाल ही में रंगा गया है । पुरातत्त्वीय तथा साहित्यिक साक्ष्य से यह भलीभाँति प्रमाणित है कि चन्देलों के राज्य में जैन अल्पसंख्यक होने पर भी अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण व प्रभावशाली थे । चन्देलों की धार्मिक सहिष्णुता, उनकी समदर्शिता तथा प्रजावत्सलता के कारण ही उनके राज्य में विभिन्न स्थानों में, विशेषतः खजुराहो व देवगढ़ में, अन्य धर्मों के सुविशाल और भव्य मन्दिरों की भाँति जैनों के भी अतिभव्य एवं कला की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट मन्दिरों का निर्माण कराया जा सका । यह राज्य की सर्व धर्म समभाव की नीति का एवं राज्य द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतन्त्रता का सहज स्वाभाविक परिणाम था । विजयपाल के यशस्वी पुत्र कीर्तिवर्मन् के राज्यकाल में शान्तिनाथ की मूर्ति उनके 'कुलाभात्य वृन्द' पाहिल तथा जोजू (जो जैनाचार्य वासवेन्दु ( या वासवचन्द्र ) के शिष्य थे ) द्वारा स्थापित कराई गई थी । पार्श्वनाथ मन्दिर के तथापि शिलालेख में यद्यपि पाहिल को 'कुल अमात्य' के रूप में उल्लिखित नहीं किया गया; उसे 'धांग राजेन मान्यः' (धंग नरेश द्वारा समादृत) बतला कर राज्य में उसकी प्रतिष्ठा की ओर महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है एवं वासवचन्द्र को 'महाराजगुरु' निरूपित किया गया है । मदनवर्मा के राज्यकाल ( वि० सं० १२१५) में स्थापित सम्भवनाथ की मूर्ति के मूर्तिलेख में तो पाहिल का पूरा वंशवृक्ष ही दिया गया है । इस मूर्तिलेख के अनुसार पाहिल श्रेष्ठ देदू के पुत्र थे । उनके पुत्र का नाम साल्हे और पौत्र का नाम महागण, महीचन्द्र, सिरीचन्द्र, जिनचन्द्र, उदयचन्द्र इत्यादि था । खजुराहो का दूसरा प्रतिष्ठित जैन परिवार श्रेष्ठि श्री पाणिधर का था, जिनके पुत्र त्रि-विक्रम, आल्हण व लक्ष्मीधर थे । खजुराहो की १. 'द अर्ली रुलर्स ऑव खजुराहो, शिशिरकुमार मित्र, पृ० २०५-०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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