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________________ ( iii ) जैन पुरातत्त्व की दृष्टि से श्री कनिघम के पुरातत्त्वीय सर्वेक्षण का विशेष महत्त्व है । कारण कि प्रथम तो उन्होंने घण्टई मन्दिर को बौद्ध मन्दिर का अवशेष निरूपित किया, परन्तु जब बाद में फर्गुसन ने स्थल का निरीक्षण कर अपेक्षाकृत अधिक गहराई से अध्ययन किया तो उन्हें श्री कनिंघम का उक्त अभिमत दोषपूर्ण प्रतीत हुआ, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने प्रतिवेदन में किया। उनका निष्कर्ष था कि घण्टई मन्दिर बौद्ध मन्दिर का अवशिष्ट भाग न होकर जैन मन्दिर का अवशिष्ट भाग है । घण्टई मन्दिर के विषय में श्री कनिंघम ने अपना अभिमत निम्नांकित तीन प्रमुख कारणों से व्यक्त किया था। पहला यह कि इस पुरावशेष के कुछ स्तम्भ बलुआ पत्थर के तथा कुछ ग्रेनाईट के थे। ग्रेनाईट के स्तम्भों का उपयोग बहुधा बौद्ध मन्दिरों में ही होता रहा है । दूसरे, इस पुरावशेष के निकट उन्हें भूमिस्पर्श-मुद्रा में बुद्ध की एक मनोज्ञ प्रतिमा प्राप्त हुई थी, जिसमें सारनाथ शैली की छठी तथा सातवीं शताब्दी की प्रतिमाओं की पुरालिपि में "ये धर्म हेतु प्रभव तेसाम हेतुभ तथागत' इत्यादि बौद्ध वाक्य अभिलिखित थे तथा उक्त प्रतिमा यथोचित रूप से सवस्त्र अंकित की गयी थी। तीसरे, ह्वेनसांग का यात्रा वृत्तान्त भी उनके ध्यान में था, जिसमें खजुराहो में अनेक बौद्ध-मठों के पाये जाने का उल्लेख किया गया था। इन कारणों से तथा उस स्थल पर मन्दिर के मलवे के ढेर के ढेर पड़े होने के कारण वे विस्तारपूर्वक पुरातत्त्वीय अध्ययन नहीं कर पाये थे, इसलिए भी उनसे यह भूल हो गयी थी। १८७६-७७ में श्री कनिंघम तथा श्री फर्गुसन दोनों विद्वानों ने इस स्थल का संयुक्त निरीक्षण किया। उन्होंने इस मन्दिर के चारों ओर बिखरी तेरह प्रतिमाओं का विस्तृत अध्ययन किया। उनमें से ग्यारह प्रतिमाएं दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की पायी गयीं, जिनमें से एक में विक्रम सम्वत् ११४२ (१०८५ ई०) का एक अभिलेख भी उत्कीर्ण था। उस अभिलेख में उक्त प्रतिमा को आदिनाथ की प्रतिमा बतलाकर यह भी वणित था कि उसकी प्रतिष्ठा श्री बीबटशाह व उनकी भार्या सेठानी पद्मावती द्वारा करायी गयी थी। इन प्रतिमाओं का तथा अन्य उपलब्ध साक्ष्यों का बारीकी से अध्ययन करने पर श्री कनिंघम को अपनी भूल ज्ञात हुई और ईमानदारी से इसे स्वीकार करते हुए उन्होंने श्री फर्गुसन से अपनी सहमति व्यक्त कर बौद्धिक ईमानदारी का परिचय दिया।' तीर्थङ्कर की माता के सोलह स्वप्नों का अंकन देखकर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि घण्टई मन्दिर केवल जैन मन्दिर ही नहीं, प्रत्युत दिगम्बर जैन मन्दिर का अवशिष्ट भाग है । कारण कि यदि उक्त मन्दिर श्वेताम्बर मन्दिर रहा होता तो उसमें तीर्थङ्कर की माता के सोलह स्वप्नों के स्थान पर केवल चौदह स्वप्नों का अंकन किया जाता। १८७९ में श्री विन्सेण्ट स्मिथ ने पुनः घण्टई मन्दिर का अपेक्षाकृत और अधिक बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने भी उसके दिगम्बर जैन मन्दिर होने की पुष्टि की। मैंने यहाँ इस प्रसंग का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक समझा है, क्योंकि उससे पुरातत्त्वीय अध्ययन की उपयोगिता तथा उसके महत्त्व का बोध होता है । १. Archaeological Survey of India Report by Cunningham, Vol II, pp. 412-27. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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