________________
८८
खजुराहो का जैन पुरातत्त्व आकृति शंख-लांछन से युक्त नेमिनाथ की मूर्ति है। ४. (क्र० ३३३, १३ वीं शती ई०) कलात्मक दृष्टि से यह मूर्ति आकर्षक नहीं है। अतिभंग में खड़ी यक्षी के सभी हाथ टूटे हुये हैं, किन्तु यक्षी के सिंहवाहन पर उनके बालक की आकृति देखी जा सकती है। ५. (क्र० ४२) त्रिभंग में खड़ी चतुर्भुजा यक्षी के तीन हाथों में आम्रलुम्बि, पद्म और बालक स्पष्ट हैं । यक्षी के वामपार्श्व में सिंहवाहन और दक्षिण पार्श्व में ज्येष्ठ पुत्र शुभंकर को आकृतियाँ बनी हैं ।
ब्रैकेट [टोडों] की मूर्तियाँ ___ भट्टारक नयनन्दी-(क्र० २३३, ११वीं शती ई०)-इस मूर्ति में जैन आचार्यों की तत्वचर्चा का अंकन हुआ है । दो जैन आचार्य आमने-सामने बैठे हैं और दोनों के हाथों में पुस्तक दिखाया गया है। इनके मध्य में स्थापना है। शीर्ष भाग में तीर्थंकर आकृतियां और पीठिका पर चार कलश तथा मयूरपिच्छिका से युक्त मुनियों की आकृतियां दिखायी गयी हैं।
आगे चार तीर्थंकर मूर्तियों के मस्तक एवं श्मश्रुयुक्त पुरुष आकृति का मस्तक (पाहिल) तथा विक्रम सम्वत् ११८६ (११२९ ई०) के लेख से युक्त किसी तीर्थकर प्रतिमा की पीठिका के अवशिष्ट भाग क्रम से रखे हुये हैं ।
केन्द्रीय षट्कोणीय पीठिका की तीर्थकर मूर्तियां : इस पीठिका पर ऋषभनाथ की चार तथा पार्श्वनाथ और महावीर की क्रमशः एक-एक मूर्तियां सुरक्षित हैं। १. ऋषभनाथ (क्र० ७, १०वीं शती ई०) लम्बी और लहराती हुई जटाओं से शोभित ऋषभनाथ की मूर्ति (४८' x २ २") के परिकर में पाँच तीर्थकर मूर्तियाँ बनी हैं जिनमें से एक मूर्ति सुपार्श्वनाथ की है। २. ऋषभनाथ (क्र० ६; १०वीं शती ई०) इकहरे बदन वाली यह मूर्ति आनुपातिक शरीर रचना एवं भावाभिव्यक्ति के स्तर पर अत्यन्त उत्कृष्ट मूर्ति (४'२" x २'९") है। मूलनायक के मुख पर मन्दस्मित और गम्भीर चिन्तन का भाव प्रदर्शित है। परिकर में २३ अन्य तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ भी बनी हैं, जिनके आधार पर यह मूर्ति चतुर्विशति जिन मूर्ति कही जा सकती है। दोनों ओर चतुर्भुज यक्ष और यक्षी का अंकन हुआ है । यद्यपि यक्ष गोमुख नहीं है किन्तु उनके हाथों में फल, सर्प, पद्म एवं धन का थैला देखा जा सकता है। यक्षी के रूप में गरुडवाहना चक्रेश्वरी निरूपित हैं। ३. ऋषभनाथ (क्र ० १८, ११ वीं शती ई०) : ऋषभनाथ वृषभ-लांछन एवं गोमुख और चक्रेश्वरी की आकृतियों से युक्त दिखाये गये हैं। इस मूर्ति (४'३' ४२'४१०") में चामरधारी सेवकों का अंकन विशेष रूप से उल्लेखनीय है । ४. ऋषभनाथ (क्र० १५, १२ वीं शती ई०) : इस मूर्ति में (३'११"x२'३'') में अलंकृत आसन एवं प्रभामण्डल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
पार्श्वनाथ (क्र० १००, ११वीं शती ई०) : पार्श्वनाथ को यह मूर्ति कला और प्रतिमा लक्षण दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस मूर्ति (४'५' x २९') में पार्श्वनाथ को सात सर्पफणों के छत्र के नीचे विराजमान दिखाया गया है। मूलनायक के पद्मासन के नीचे सर्प की कुण्डलियाँ बहुत सुन्दर ढंग से उत्कीर्ण हैं । अष्टप्रातिहार्यों के साथ ही सिंहासन पर सर्पफगों के छत्र वाले द्विभुज धरणेन्द्र और चतुर्भुजा पद्मावती की आकृतियाँ भी उकेरी हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org