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________________ अन्य देव मूर्तियां से शनि ) को पूर्ववत् अन्य उदाहरणों में भी अभयमुद्रा और जलपात्र के साथ दिखाया गया है। राहु और केतु की आकृतियाँ पार्श्वनाथ मंदिर की मूर्तियों के सदृश्य हैं । केवल जैन धर्मशाला के आहाते की मूर्ति में केतु के हाथ अंजलिमुद्रा में न होकर अभयमुद्रा और फल से युक्त हैं। खजुराहो के ब्राह्मण देव मंदिरों के उदाहरणों में भी सूर्य के दोनों हाथों में सनाल पद्म और राहु तथा केतु के अतिरिक्त अन्य ग्रहों के हाथों में अभयमुद्रा और जलपात्र हैं । ऊर्ध्वकाय राहु के हाथ तर्पणमुद्रा में और केतु के अंजलिमुद्रा में हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन मंदिरों पर नवग्रहों का अंकन ब्राह्मण मंदिरों के उदाहरणों से प्रभावित है। साथ ही खजुराहो-शिल्पी ने नवग्रहों के निरूपण में सूर्य, राहु और केतु के अतिरिक्त अन्य ग्रहों के सन्दर्भ में शास्त्रीय विवरणों का पालन नहीं किया, यह भी स्पष्ट है।' उल्लेखनीय है कि नवग्रहों का स्वतंत्र और पारम्परिक लक्षणों के साथ निरूपण कोणार्क के सूर्य मंदिर ( पुरी, उड़ीसा ) के समीप के नवग्रह मंदिर मूर्तियों ( १३वीं शती ई० ) में हुआ है। जैन ग्रन्थों में सूर्य को दोनों हाथों में पद्म से युक्त और सप्ताश्व रथ पर आरूढ़ बताया गया है। अन्य छः ग्रहों (चन्द्र से शनि) को अक्षमाला और जलपात्र धारण किये निरूपित किया गया है । पर कुछ ग्रंथों में इनके लिए अलग-अलग लक्षणों का भी विधान है : चन्द्र के हाथ में अमृतघट (या शूल), मंगल के हाथ में शूल, बुध के हाथ में पुस्तक (वाहन हंस या पद्य), वृहस्पति के हाथ में पुस्तक (वाहन हंस या पद्म), शुक्र के हाथ में त्रिशूल, सर्प, पाश और अक्षमाला (वाहन अश्व) तथा शनि के हाथ में परशु (वाहन कमठ) के उल्लेख हैं । राहु का दो रूपों में उल्लेख हुआ है, एक में सिंह वाहन वाले तथा परशुपाणि हैं और दूसरे में ऊर्ध्वकाय और दोनों हाथ अर्घमुद्रा (तर्पणमुद्रा) में किए हैं ।६ केतु को धुम्रवर्ण और सर्पवाहन वाला तथा हाथों में अक्षमाला और जलपात्र (या सर्प) से युक्त निरूपित किया गया है। इस प्रकार जैन ग्रन्थों के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि नवग्रहों के निरूपण में स्वरूपगत भेद की बात स्वीकार की गई थी। किन्तु खजुराहो, देवगढ़ तथा अन्यत्र से प्राप्त मूर्त अभिव्यक्तियों में केवल सूर्य, राहु और केतु के प्रसंग में ही स्वरूपगत भेद प्रकट हुआ है। १. अवस्थी, रामाश्रय, पूर्वनिविष्ट, पृ० १९४-९६ । २. आचारदिनकर, भाग २; प्रतिष्ठाधिकार, पृ० १७९ । ३. निर्वाणकलिका २०. २-७ । ४. प्रतिष्ठासारसंग्रह ६.६ । ५. आचारदिनकर, भाग २, पृ० १८० । ६. निर्वाणकलिका २०. ८; आचारदिनकर, भाग २, पृ० १८० । ७. निर्वाणकलिका २०. ९; आचारदिनकर, भाग २, पृ० १८० । ८. निर्वाणकलिका में चन्द्र से शनि तक ६ ग्रहों को समान लक्षणों वाला निरूपित किया गया है और उनके करों में अक्षमाला और जलपात्र का उल्लेख हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002076
Book TitleKhajuraho ka Jain Puratattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherSahu Shanti Prasad Jain Kala Sangrahalay Khajuraho
Publication Year1987
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Art, & Statue
File Size10 MB
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