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खजुराहो का जैन पुरातत्व
नवप्रह
भारत के विभिन्न भागों में नवग्रह पूजन की परम्परा प्राचीन काल से लोकप्रिय रही है। याज्ञवल्क्य स्मृति में समृद्धि, शांति, कृषि, दीर्घायु एवं शत्रु विनाश के लिए ग्रह यज्ञ करने तथा नवग्रह प्रतिमाओं के पूजन का विधान दिया गया है । नवग्रहों में सूर्य प्रधान हैं; अन्य ग्रह चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु हैं। ज्योतिष्क देवों के रूप में ग्रहों का उल्लेख जैन धर्म में पर्याप्त प्राचीन है। ल० ११वीं-१२वीं शती ई० में जैन ग्रन्थों में नवग्रहों के निरूपण से संबंधित उल्लेख प्राप्त होते हैं । यद्यपि इन ग्रहों की स्वतंत्र मूर्तियाँ नहीं बनी किन्तु जैन मंदिरों के प्रवेश-द्वारों पर नवग्रहों का सामूहिक अंकन आठवींनवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ। नवीं शती ई० के बाद जिन मूर्तियों के परिकर में भी नवग्रहों का अंकन हुआ है। श्वेताम्बर स्थलों की अपेक्षा दिगम्बर स्थलों पर इनका अंकन अधिक लोकप्रिय था । जैन स्थलों पर नवग्रहों का निरूपण पूरी तरह ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित रहा है । खजुराहो में पार्श्वनाथ और घण्टई मंदिरों के प्रवेश-द्वारों के अतिरिक्त आठ अन्य स्वतंत्र उत्तरंगों' पर भी द्विभुज नवग्रहों का अंकन हुआ है।
__ पार्श्वनाथ मंदिर के मण्डप, गर्भगृह और पश्चिम के संयुक्त जिनालय के उत्तरंगों पर नवग्रहों के तीन समूह हैं। तीनों उदाहरणों में नवग्रहों की खड़ी आकृतियाँ द्विभुज हैं । समभंग में अवस्थित सूर्य के दोनों हाथों में सनाल पद्म प्रदर्शित हैं। बाद की छः आकृतियाँ ( चन्द्र से शनि ) त्रिभंग में हैं और उनके दाहिने हाथ से अभयमुद्रा व्यक्त है जबकि बाँयें में जलपात्र है । राहु ऊर्ध्वकाय तथा बिखरी केशराशि वाले हैं। केतु अंजलि-मुद्रा में हैं और उसके कटि के नीचे का भाग सर्पाकार है तथा मस्तक पर तीन सर्पफणों का छत्र भी प्रदर्शित है । उल्लेखनीय है कि अन्य उदाहरणों में भी नवग्रहों के साथ यही विशेषतायें प्रदर्शित हैं। पार्श्वनाथ मंदिर के अतिरिक्त तीन अन्य उदाहरणों में भी नवग्रहों को खड़ी मूर्तियाँ बनी हैं । शेष में सूर्य को उत्कूटिकासन तथा अन्य ग्रहों को ललितमुद्रा में निरूपित किया गया है । ऊर्ध्वकाय राहु सभी में विस्फारित नेत्र, ऊर्ध्वकेश और विकराल दर्शन वाले हैं तथा उनके दोनों हाथ तर्पण-मुद्रा में दिखाए गए हैं। केतु की आकृति सदैव सर्पाकार है। किरीटमुकुट से शोभित सूर्य को कुछ उदाहरणों में उपानह से युक्त दिखाया गया है और उनके चरणों के समीप कभी-कभी छाया की लघु आकृति भी बनी है। यहाँ उल्लेखनीय है कि यद्यपि नवग्रह फलकों पर सूर्य का अंकन खजुराहो सहित देवगढ़ तथा आस-पास के अन्य दिगम्बर स्थलों पर हुआ है, किन्तु सूर्य को स्वतंत्र देवता के रूप में जैन देवकुल में स्थान नहीं प्राप्त हुआ, जबकि विष्णु, शिव, कात्तिकेय, ब्रह्मा तथा अन्य कई ब्राह्मण देवों को जैन देवकुल में शासनदेवताओं एवं स्वतंत्र देवों ( ब्रह्मशांति एवं कपर्दिद यक्षों) के रूप में मान्यता मिली । बहुत संभव है सूर्य के अव्यंग, वर्म और उपानह जैसे विदेशी तत्वों से युक्त होने के कारण ही उन्हें जैन धर्म में स्वतंत्र देवता के रूप में प्रवेश नहीं मिला । सूर्य के अतिरिक्त छः ग्रहों ( चन्द्र १. नवग्रहों की आकृतियों से युक्त दो स्वतंत्र उत्तरंग क्रमशः जाडिन संग्रहालय, खजुराहो
( क्रमांक १४६७ ) तथा जैन धर्मशाला के अहाते में हैं।
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