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जैनधर्म का प्रसार
वि० सं० १३८३ / ई० सन् १३२४-२५ में ही जिनकुशलसूरि ने जिनदत्तसूरि द्वारा रचित चैत्यवंदनकुलक पर वृत्ति की रचना की । ' वि० सं० १३८९ / ई० सन् १३३२ में रुद्रपल्लीयगच्छ के संघतिलक- सूरि के शिष्य सोमतिलक अपरनाम विद्यातिलक ने वोरकल्प और षट्दर्शनसूत्रटीका, वि० सं० १३९४ / ई० सन् १३३७ में शीलतरंगिणीवृत्ति और वि० सं० १३९७ / ई० सन्० १३४० में लघुस्तवकटीका की रचना की ।
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उपर्युक्त साक्ष्यों - राजाओं द्वारा जैन मुनियों को संरक्षण, जैनाचार्यों की साहित्यिक गतिविधियां, जिनालयों के निर्माण और जीर्णोद्धार, तीर्थयात्राओं के विभिन्न संदर्भ आदि से यह भली-भांति सिद्ध है कि चापोत्कट, सोलंकी और बाघेलवंशीय राजाओं के राज्यकाल में जैन धर्म पश्चिमी भारत में अत्यन्त लोकप्रिय और निरन्तर विकासोन्मुख रहा । मुस्लिम शासन स्थापित हो जाने पर भी जैन मतावलम्बियों की प्रत्येक धार्मिक गतिविधियां पूर्ववत् जारी रहीं । अत्यन्त समृद्ध जैन धर्म का यही चित्र जिनप्रभसूरि और उनके कल्पप्रदीप की पृष्ठभूमि है । बाद के युगों में भी प्रायः यही स्थिति रही और इसी का परिणाम है कि जैन धर्म आज भी गुजरात - कठियावाड़ में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक समुन्नत दशा में विद्यमान है ।
१ जिनरत्न कोश, पृ० १२४
२. वही, पृ० ४०२-४०३
३. वही, पृ० ३८५
४. देसाई, मोहनलाल दलीचंद, पूर्वोक्त, पृ० ४३२
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