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________________ अध्याय ४ तीर्थों का विभाजन इस अध्याय के अन्तर्गत सर्वप्रथम तीर्थ शब्द के अर्थ तत्पश्चात् कल्पप्रदीप के तीर्थों का परम्परागत एवं प्रदेशानुसार विभाजन प्रस्तुत किया गया है। तीर्थ शब्द का अर्थ भारत वर्ष की धार्मिक संस्कृति में तीर्थ शब्द का अत्यधिक महत्त्व है। वैयाकरणों ने इस शब्द की व्युत्पत्ति 'तृ' धातु के साथ 'थक् प्रत्यय लगाकर की है, अर्थात् जिसके माध्यम से तिरा जाये, या पार किया जाये, वह तीर्थ है। ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक संहिताओं में तीर्थ शब्द का प्रयोग मार्ग अथवा सड़क के अर्थ में आया है। कुछ. स्थानों पर इसका तात्पर्य है नदी का छिछला भाग, जहां उसे आसानी से पार किया जा सके ।' ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थल पर तीर्थ शब्द 'एक पवित्र स्थान' के अर्थ में आया है ।२ आर्यों में अग्निपूजा, सूर्यपूजा आदि प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। इन कृत्यों को करने से पहले स्नान आवश्यक समझा जाता था। नदी का वह स्थान जहां स्नान किया जाता रहा, पवित्र माने जाने लगे। इसी प्रकार पूजा के स्थान भी पवित्र माने जाते थे। अथर्ववेद में भी जल को शुद्ध और पवित्र करने वाला माना गया है। नदी तथा जलीयस्थानों के अलावा प्राकृतिक रमणीय स्थल एवं मुनियों के रहने तथा तपस्थल. भी पवित्र माने गये । ऋग्वेद में तो पर्वतों की घाटियों एवं नदियों - १. काणे, पी०वी०-हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र (हिन्दी अनुवाद) तृतीय भाग, पृ० १३००। २. वही, पृ० १३००। ३. वही, पृ० १३०१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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