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जैन धर्म का प्रसार
(खम्भात) में जेसलशाह ने अजितनाथ जिनालय का निर्माण कराया । वि० सं० १३७१ में उसने शत्रुञ्जयतीर्थं स्थित जिनालयों को जो मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा नष्टप्राय कर दिया गया था, पुनर्निर्मित कराया । २
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समराशाह ने अनेक तीर्थों पर जिनालयों का निर्माण कराया तथा संघ के साथ कई बार तीर्थ यात्रा भी की । कक्कसूरि द्वारा वि० सं० १३९३ / ई० सन् १३३८ में रचित नाभिनन्दनजिनोद्धारप्रबंध में समराशाह के सुकृत्यों का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है । ' आबू के जगत्प्रसिद्ध विमलवसही और लूणवसही जिसे मुसलमानों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था, वि० सं० १३७८ / ई० सन् १३२१ में धर्म -- घोषगच्छीय आचार्य ज्ञानचन्द्रसूरि के उपदेश से पुनर्निर्मित कराया गया । ४
१. अहं संवत् १३६६ वर्षे प्रतापाक्रान्तभूतल श्रीअलावदीनसुरत्राणप्रतिशरीर-श्री अल्पखान विजय राज्ये श्रीस्तंभतीर्थे
"सकलसाधर्मिकवत्सलेन साहजेसल सुश्रावकेण कोडिकास्थापन पूर्व श्रीश्रावकपोषधशालासहित: सकल विधिलक्ष्मीविलासालय: श्रीअजित - स्वामिदेव विधिचैत्यालयः कारित आचन्द्रार्कं यावन्नंदतात् ॥ अल्लखान के राज्यकाल में निर्मित स्तम्भनपावन थ जिनालय का शिलालेख
दलाल, चिमनलाल डाह्याभाई, संपा० प्राचीनगूर्जर काव्यसंग्रह (द्वितीय संस्करण, बडोदरा – १९७० ई० ), परिशिष्ट viii, पृ० १५२
२. द्रष्टव्य - इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत शत्रुञ्जयकल्प
३. संपा० पं० भगवानदास हरखचन्द ( अहमदाबाद, वि० सं० १९९५) ४. श्रीज्ञानचंद्र इति नंदतु सूरिराज:
पुण्योपदेशविधिबोधितस ( * ) त्समाजः ॥ ४१ ॥
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वसु- मुनि - तु (गु) ण - शसि शि वर्ष (र्षे ) ज्येष्ठे (ष्ठेऽ) सितितर (व) मिसोमयुत दिवसे । श्रीज्ञानचंद्रगुरुणा
प्रतिष्टि (ष्ठ) तोऽबुदगिरी ऋषभः ॥ ४२ ॥ मुनि जयन्त विजय - संपा०
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अर्बुदप्राचीन जैनलेखसंदोह, लेखांक
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