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जैनधर्म का प्रसार
श्रयों ( मठों) में रहते थे।' देवचन्द्र के अनुयायी भ्रमणशील थे और वे छोटे-छोटे उपाश्रयों में रहते थे। देवचन्द्र एक विद्वान् जैनाचार्य थे, उन्होंने ५ नये कर्मग्रन्थों, उनकी टीकाओं एवं सुदर्शनचरित श्रावकदिनकृत्य, धर्मरत्नटीका आदि की रचना की।
वि० सं० १३०२/ई० सन् १२४६ में सुधर्मागच्छीय सर्वानन्दसूरि ने चन्द्रप्रभवरित ३, वि० सं० १३४० / ई०सन् १२४८ में देवभद्रसूरि के शिष्य परमानन्दसूरि ने हितोपदेशमालावृत्ति, वि० सं० १३०५/ ई० सन् १९४९ में यशोदेव ने प्राकृत भाषा में धर्मोपदेशमाला" की रचना की। वि० सं० १३०७ ई०सन् १२५१ में वीरप्रभसूरि के शिष्य अजितप्रभसूरि ने शान्तिनाथचरित की रचना की । ६ वि० सं० १३०७/ई०सन् १२५१ में ही खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य पूर्णकलश ने प्राकृतद्वयाश्रय पर टीका लिखी। वि० सं० १३११ । ई० सन् १२५५ में खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य लक्ष्मीतिलक ने प्रत्येकबुद्ध नामक ग्रन्थ रचा। वि०सं० १३१२ / ई०सन् १२५६ में लक्ष्मीतिलक के शिष्य अभयतिलक ने हेमसूरि द्वारा रचित संस्कृतद्वयाश्रय पर टीका लिखी।' वि० सं० १३१२ / ई० सं० १२५६ में १. त्रिपुटी महाराज--पूर्वोक्त, भाग, १ पृ० ५८ २. वही, पृ० ५९ ३. जिनरत्नकोश, पृ० ११९ ४. वही, पृ० ४६१ ५. वही, पृ० १९६-९७ ६. वही, पृ० ३७९ ७. देसाई, मोहनलाल दलीचन्द--पूर्वोक्त, पृ० ४१० ८. श्रीमत्सूरिजिनेश्वरप्रभ तिभिः साहित्यसिंधोः पिवैः,
श्री द्विव्याकरणः (?) सुधीभिरमलीचक्रे प्रयत्नाच्च तत् । प्रेक्षावत्प्रवरैः परैश्च विमलीकार्य विचार्याऽऽदराद्, रुद्राग्नींदु १३११ शरत्तपस्यविमलकादश्यहेऽपूरि च ॥३३॥ मनि श्रीपुण्य विजय संपा.-कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्कृिप्ट्स--जैसलमेरकलेक्शन [अहमदाबाद-१९७२ ई. ]
पृ० ११७-१२० ९. वही, पृ० १४०-४१
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