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________________ जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन सं० १०३३/ई० सन् ९७६ के वरुणसरमक दानपत्र से ज्ञात होता है कि युवराज चामुण्डराज ने वरुणसरमक के जिनालय को भूमि दान दिया।' वरुणसरमक को मेहसणा जिले में स्थित वर्तमान वडसम से समीकृत किया जाता है। चामुण्डराज के पुत्र दुर्लभराज ( ई० सन् १००९-१०२४) पर भी जैन धर्म का बड़ा प्रभाव था। खरतरगच्छपट्टावली के अनुसार इसी राजा के दरबार में चैत्यवासियों और सुविहितमार्गी मुनियों में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें चैत्यवासियों की पराजय हुई और उनका महत्त्व घटने लगा। सुविहितमार्गी मुनियों की ओर से वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ में भाग लिया था। वर्द्धमानसूरि ने ई० सन् १०३१ में आबू पर दण्डनायक विमल द्वारा निर्मित नेमिनाथ जिनालय में मूर्तिप्रतिष्ठा की। इसके कुछ समय पश्चात् उन्होंने सल्लेखना व्रत स्वीकार कर इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।" इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ११ वीं शती में इस क्षेत्र में जैन धर्म अत्यन्त लोकप्रिय था जिसके कारण ही आबू पर विमलवसही जैसे कला की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट जिनालय का निर्माण सम्भव हो सका। चौलुक्य नरेश भीम 'प्रथम' ( ई० सन् १०२४-६४ ) ने गोविन्दसरि, सराचार्य, वादिवेताल शांतिसूरि, महेन्द्रसूरि आदि कई प्रसिद्ध जैनाचार्यों का सम्मान किया था। जयसिंह सिद्धराज ( ई० सन् १०९४-११४२) १. मुनिजिनविजय-'चामुण्डराज चौलुक्य- सं० १०३३ नुं 'ताम्रपत्र' भारतीयविद्या वर्ष १, अंक १ [बम्बई, नवम्बर १९३९ ई०] पृ० ७३-१०० २. मजुमदार, ए० के०-चौलुक्याज ऑफ गुजरात [बम्बई, १९५६ ई०] पृ. ३१० ३. खरतगच्छबृहद्गुर्वावली-संपा० मुनिजिनविजय [बम्बई १९५६ ई०] पृ० ३-४ ४. नाहटा, अगरचन्द 'विमलवसही के संस्थापकों में वर्धमानसूरि भी थे' जैनसत्यप्रकाश, वर्ष ५, अंक ५-६, पृ० २१२-२१४ ५. खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली, पृ० ५ गांधी, लालचन्द भगवान-ऐतिहासिकजनलेखो [बड़ौदा १९६३ ई०] पृ० २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002075
Book TitleJain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tirth, & History
File Size14 MB
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